तुम मेरे जीवन में आई नहीं हो
जीवन में मेरे लाई गई हो
मुझे क्या पता था कहाँ तुम हो ख़ुशियाँ
सपनों में भी तुम आई नहीं हो
करम देखता हूँ तो सोचता हूँ
करम कहाँ ऐसे कि सुख भोगता हूँ
मैं हूँ एक बच्चा जाता पाठशाला
जिसे टॉफ़ी कोई दिलाई गई हो
सुबह शाम गीतों की दुनिया है ऐसी
कि कलकल करती नदिया हो वैसी
मैं जितना भी चाहूँ उतना नहाऊँ
गीतों की जैसे झड़ी लग गई हो
हमसफ़र न कोई, राह भी नहीं है
जहाँ हूँ मैं जन्नत अता हो रही है
अगर चलता भी तो हासिल न होता
जो दामन में मेरे तुम धर रही हो
राहुल उपाध्याय । 5 अप्रैल 2022 । सिएटल
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