आज तुम्हारी कॉल बहुत मिस की
एक आदत सी बन गई है
तुम से कुछ कहने की
तुम से कुछ सुनने की
तुम्हारी
चहकती हुई आवाज़
खिलखलाती हँसी में
पुट है
शरतचन्द्र की नायिका का
प्रेमचंद की सादगी का
मीरा की भक्ति का
महादेवी की छाया का
तुम तब क्यों नहीं मिली
जब फ़ाइनल्स के लिए जगना था
और लाख अलार्म्स
और अड़ोस-पड़ोस के कई विद्यार्थी
हार जाते थे
आज
न आँखों में नींद है
न दिल में चैन
और काम इतना पड़ा है
पर मन ही नहीं कर रहा है
कुछ करने का
वक्त थम सा गया है
न सुबह हुई
न शाम हुई
ज़िन्दगी यूँ ही तमाम हुई
राहुल उपाध्याय । 6 जनवरी 2025 । सिएटल