शाम का तिलक सुबह होते-होते
दाग बन जाता है
रातो-रात
कितना कुछ बदल जाता है
शायरी है मसखरी
कहनेवालों को क्या ख़बर
कि कागद कारे करते-करते
कवि कितना कलप जाता है
आओ चलो बैठे कहीं
दो घड़ी हम साँस लें
योजना बनाते - बनाते ही
वक़्त निकल जाता है
एक अरसा हुआ
तस्वीरों को फ़्रेम में लगाए हुए
जो भी आता है
डिवाईस से चिपक जाता है
न जाने कौन
कब कहाँ क्या कर बैठेगा
सोचने लगो
तो इंसानियत से विश्वास उठ जाता है
14 नवम्बर 2013
सिएटल । 513-341-6798
दाग बन जाता है
रातो-रात
कितना कुछ बदल जाता है
शायरी है मसखरी
कहनेवालों को क्या ख़बर
कि कागद कारे करते-करते
कवि कितना कलप जाता है
आओ चलो बैठे कहीं
दो घड़ी हम साँस लें
योजना बनाते - बनाते ही
वक़्त निकल जाता है
एक अरसा हुआ
तस्वीरों को फ़्रेम में लगाए हुए
जो भी आता है
डिवाईस से चिपक जाता है
न जाने कौन
कब कहाँ क्या कर बैठेगा
सोचने लगो
तो इंसानियत से विश्वास उठ जाता है
14 नवम्बर 2013
सिएटल । 513-341-6798
2 comments:
"न जाने कौन
कब कहाँ क्या कर बैठेगा
सोचने लगो
तो इंसानियत से विश्वास उठ जाता है"
सच! सूरज पर तो पूरा भरोसा था पर आज पता चला कि वो भी कुछ साल बाद पलट जाता है :)
http://news.sky.com/story/1169107/sun-set-to-flip-upside-down-within-weeks
कविता की सारी बातें बहुत सही और अच्छी हैं। इन lines में:
"शायरी है मसखरी
कहनेवालों को क्या ख़बर
कि कागद कारे करते-करते
कवि कितना कलप जाता है"
आपने ठीक कहा कि जो लोग लिखते नहीं है वो समझ नहीं सकते कि एक रचना लिखने का और उसे दुनिया तक पहुँचाने का सफर लेखक के लिए कितने संघर्षों से भरा होता होगा। इन lines में "क" से बहुत शब्द हैं - अच्छा लगा।
अंत में कही बात - कि कौन, कब, कहाँ, क्या कर दे, किस बात पर साथ छोड़ दे, पता नहीं। इसलिए हम पूरे मन से किसी पर भरोसा नहीं कर पाते, उम्मीदें नहीं जोड़ पाते - सच है। और लोग चाहते भी नहीं कि उनसे कोई expectations रखी जाएं। हम दूसरों को बदल नहीं सकते मगर यह कोशिश कर सकते हैं कि हम खुद किसी के भरोसे को तोड़ें नहीं। जब हर मन यह सोचेगा तो एक दिन सब लोग एक दूसरे पर फिर भरोसा करने लगेंगे।
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