1.
जो जितना ज्यादा चूना लगाता है
वो उतना ही सुंदर कैलेंडर थमाता है
2.
नव-वर्ष शुभ हो
खुशियाँ भरपूर हो
कहने में क्या जाता है
जब फ़्री में मिलते फ़ेसबूक के खाते हो
3.
भरा भंडार हो
सम्पदा अपार हो
कहते हैं जो
समय आने पर
खुद ही
कन्नी काट जाते हैं वो
4.
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी
अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
बारिश की बूंदे जो कभी थीं घुंघरु की छनछन
आज दफ़्तर जाते वक्त कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे जो लगते थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते हैं बस उछालते कीचड़
जिन्होंने सींचा था बचपन
वही आज लगते हैं अड़चन
रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनों के बीच हुआ बचपन रिटायर
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से तब सजती थी दीवारें
अब तो गायब ही हो गए ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स कुछ ऐसे हैं मारे
कि दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए हैं संदेश हमारे
जिनसे मिलती थी कभी अपनों की खुशबू
आज हैं बस वे रिसाइक्लिंग की वस्तु
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
जो जितना ज्यादा चूना लगाता है
वो उतना ही सुंदर कैलेंडर थमाता है
2.
नव-वर्ष शुभ हो
खुशियाँ भरपूर हो
कहने में क्या जाता है
जब फ़्री में मिलते फ़ेसबूक के खाते हो
3.
भरा भंडार हो
सम्पदा अपार हो
कहते हैं जो
समय आने पर
खुद ही
कन्नी काट जाते हैं वो
4.
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी
अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
बारिश की बूंदे जो कभी थीं घुंघरु की छनछन
आज दफ़्तर जाते वक्त कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे जो लगते थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते हैं बस उछालते कीचड़
जिन्होंने सींचा था बचपन
वही आज लगते हैं अड़चन
रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनों के बीच हुआ बचपन रिटायर
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से तब सजती थी दीवारें
अब तो गायब ही हो गए ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स कुछ ऐसे हैं मारे
कि दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए हैं संदेश हमारे
जिनसे मिलती थी कभी अपनों की खुशबू
आज हैं बस वे रिसाइक्लिंग की वस्तु
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
3 comments:
"टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स कुछ ऐसे हैं मारे
कि दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए हैं संदेश हमारे"
आपकी बात सही है कि आजकल greetings अक्सर impersonal और बिना feelings की होती हैं। मगर हम सबकी life में कुछ लोग ऐसे ज़रूर हैं जिनकी greeting में सच्ची भावना आज भी है। हम बस यही कर सकते हैं कि उन लोगों के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें और खुद जब भी किसी को greet करें तो पूरे सच्चे मन से करें।
कविता के चारों भाग बढ़िया हैं। पहले भाग में दो पंक्तियाँ हैं, दूसरे में चार, तीसरे में छह, और आखरी भाग में बहुत सारी - यह progression अच्छा लगा।
so beautiful .
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