उत्सव हम भी मनाते हैं
उत्सव वो भी मनाते हैं
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि हम दीप जलाते हैं
वो कैंडल बुझाते हैं
शाबाशी हम भी देते हैं
शाबाशी वो भी देते हैं
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि हम पीठ थपथपाते हैं
वो अंगूठा दिखाते हैं
माँ से प्यार
उनको भी है
हमको भी है
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि एक वयस्क इंसान का माँ के साथ रहना
उनके लिए दुर्भाग्य है
हमारे लिए सौभाग्य
घर उनका भी है
घर हमारा भी है
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि आप उनके घर बिन बुलाए जा नहीं सकते
और हमारे घर से बिना खाए आ नहीं सकते
8 जुलाई 2014
सिएटल । 513-341-6798
उत्सव वो भी मनाते हैं
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि हम दीप जलाते हैं
वो कैंडल बुझाते हैं
शाबाशी हम भी देते हैं
शाबाशी वो भी देते हैं
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि हम पीठ थपथपाते हैं
वो अंगूठा दिखाते हैं
माँ से प्यार
उनको भी है
हमको भी है
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि एक वयस्क इंसान का माँ के साथ रहना
उनके लिए दुर्भाग्य है
हमारे लिए सौभाग्य
घर उनका भी है
घर हमारा भी है
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि आप उनके घर बिन बुलाए जा नहीं सकते
और हमारे घर से बिना खाए आ नहीं सकते
8 जुलाई 2014
सिएटल । 513-341-6798
1 comments:
कविता की चारों observations बहुत interesting हैं। पहले दो comparisons को रीति-रिवाज़ समझा जा सकता है। बाकि दोनों comparisons में "हम" और "उन" का फर्क आज blur हो चुका है। जो बातें सोची थीं कि "उन" में हैं वही "हम" में भी दिखने लगी हैं। Phone करके जाना, माता-पता से अलग रहना - "उन" के तो शुरू से यही रिवाज़ थे पर "हम" ने तो पुराने ढंग छोड़कर नए ढंग अपनाये हैं। वक्त ने किया, क्या बुरा सितम, "उन" रहे न "उन", "हम" रहे न "हम" :)
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