Tuesday, November 10, 2015

खील खिलाना अलग है


खील खिलाना अलग है
खिलखिलाना अलग है
खील खिलाना है दीवाली का अनिवार्य अंग
मुस्कुराना मानवता का मज़हब है

मुस्कुराहट है
तो मोहब्बत है
मोहब्बत है
तो हम है

मोहब्बत यक़ीं है
मोहब्बत ज़बाँ है
वादा करो
तो निभाना अवश्य
यह कहती आशिक की धड़कन है

मोहब्बत जवाँ है
मुसल्सल ज़मज़मा है
जिसका अक्स हो रक़्स में
ऐसे इश्क़ में अश्क़ ही कहाँ है

मुस्कुराहट जहाँ है
सभ्यता वहाँ है
दूध और घी की बहती नदियाँ वहाँ है
सजदे में झुकता सबका जबीं वहाँ है

खील खिलाना अलग है
खिलखिलाना अलग है

खील = भुना हुआ चावल; मुरमुरा, जिसे दीवाली के दिन हाथी-घोड़े जैसे दिखनेवाले बताशों के साथ खाया जाता है
ज़बाँ = ज़ुबान, वचन
मुसल्सल ज़मज़मा = uninterrupted music
अक्स = reflection
रक़्स = नृत्य 
अश्क़ = आँसू 
जबीं = forehead 

10 नवम्बर 2015
सिएटल | 425-445-0827

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3 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 12-11-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2158 पर की जाएगी |
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
धन्यवाद

Himkar Shyam said...

बहुत सुंदर

Anonymous said...

कविता में खील का reference बहुत अच्छा लगा। "खील खिलाना" और "खिलखिलाना" का wordplay बढ़िया है। कितनी सच और सरल है यह बात कि "मुस्कुराना मानवता का मज़हब है" मगर हम भूल जाते हैं। कविता में प्रेम और मुसकुराहट के close relationship पर बहुत प्यारी और सच बातें लिखी हुई हैं। मुसकुराना मुहौब्बत की celebration है। अगर दुनिया में सब एक दूसरे से प्यार करें तो दुख और आँसू कभी होंगे ही नहीं। नफरत, terrorism की जड़ यही है कि दिलों में मानवता के लिए प्यार और अपनापन नहीं है। प्यार सिर्फ अपनों तक ही सीमित रह गया है। बहुत अच्छी बातें हैं इस कविता में!