सुराही सुरा ही पिलाती
तो राही सु-राही नहीं होता
डगमगाता, बहक जाता
पाँव तो क्या, सर भी
मंज़िल की ओर अग्रसर नहीं होता
धरती तो धारती है
कब किसको तारती है?
ग्रेविटी की ग्रेव में
हम सबको पालती है
समंदर के अंदर क्या है
यह समंदर ही जानता है
लहरें तो सतही हैं
सत ही कहाँ जानती हैं
आसमान तो आसमान है
सदा एक समान है
वह तो बदली ही है
जो रंग-रूप बदलती है
आसमान में रहती है
और रहती असमान है
सुरा = शराब
धारना = to hold जैसे कि रूपया या मुरली
ग्रेविटी = Gravity
ग्रेव = Grave
5 मार्च 2016
सिएटल | 425-445-0827
4 comments:
कविता में बहुत सारा wordplay है: "सुराही, सुरा, सु-राही", "सर, अग्रसर", "धरती, धारती", "ग्रेव, ग्रेविटी", "सतही, सत ही", "आसमान, असमान, समान", "बदली, बदलती" - सब शब्द सही fit होते हैं।
यह बात सही है कि सुराही सदा सुरा पिलाती तो पीने वाले के लिए सीधी राह पर चलना कठिन होता।"समंदर के अंदर क्या है" से आपकी कविता याद आई कि समुंदर में मंदिर धुपा है। यह बात भी गहरी है कि आसमान पर बादल ही रंग बदलते हैं, आसमान नहीं।
Video अच्छा लगा!
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Thanks for these poems. It is so good to read your poems after a while. I missed them for long time. These videos are beautiful - the idea and the filming. What a wonderful idea. Please do keep sending all your poems. Thanks
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Vah! Vah! very nice.
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बहुत ख़ूब।
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