आँखें नहीं है जिनके पास
वे भी कितना रोते हैं
बादल-बिजली-पवन-निशा
सारा गाँव भिगोते हैं
अपनी क़िस्मत अपने हाथों
लिखने वाले लिखते हैं
बाक़ी सब पूर्व-लिखाई
गंगा तट पे धोते हैं
कितना कुछ है अपने अन्दर
कि अम्बर तक का अम्बार भी कम है
फिर भी कुछ खो जाने के डर से
चिन्तित हो के सोते हैं
वर्तमान का कुछ मान नहीं है
सब अगला या पिछला है
कभी कटाई करते हैं तो
बीज नया कभी बोते हैं
पोते-पोती बड़े हो गए
लीपा-पोती नहीं गई
कभी किसी की ख़ामी ढक ली
तो ज़ुल्म नया कोई ढोते हैं
व्रत के वृत्त से बाहर आओ
तो कुछ समझा पाऊँ मैं
कि उपवास और उपासना में
कितना समय हम खोते हैं
17 जनवरी 2017
सिएटल | 425-445-0827
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