जाते जाते यार मुझे क्या दे गया
जीते जी मरने की सज़ा दे गया
रहता था खुश, स्वच्छंद था मैं
कली कली महके, ऐसी सुगंध था मैं
जागूँ सारी-सारी रात ऐसी दवा दे गया
न उससे बात करूँ, न मुलाकात करूँ
ज़र्द और ज़ब्त सब्ज़ जज़बात करूँ
ऐसी-वैसी कसम कई दफ़ा दे गया
कर के गया कुछ ऐसा बर्बाद मुझे
कि सांस भी लूँ तो आए याद मुझे
दिल ले कर बेरहम दमा दे गया
बचने की अब कोई उम्मीद नहीं
रोज़ ही रोज़े होगे, होगी ईद नहीं
प्यास न बुझे ऐसी यातना दे गया
मुक्ति की मेरी कोई तरकीब तो हो
चाहे मार ही डाले, कोई रक़ीब तो हो
यार मेरा जीने की बददुआ दे गया
सिएटल,
9 सितम्बर 2008
Tuesday, September 9, 2008
जीते जी मरने की सज़ा
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:29 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: relationship, valentine
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5 comments:
अपने लाजवाब लिखा है.......इसमे भाव भी अच्छे हैं.....मन को छु रहे हैं
achha likha.badhai
बचने की अब कोई उम्मीद नहीं
रोज़ ही रोज़े होगे, होगी ईद नहीं
प्यास न बुझे ऐसी यातना दे गया
शानदार...
बेहतरीन..
न उससे बात करूँ, न मुलाकात करूँ
ज़र्द और ज़ब्त सब्ज़ जज़बात करूँ
ऐसी-वैसी कसम कई दफ़ा दे गया
kya baat hai, wah wah
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