बड़े पत्ते गिर गए
छोटे-छोटे रह गए
सूरज भी चला गया
तारे सारे रह गए
रोशनी न खास है
छाँव भी घनी न है
फिर भी रोशनी और छाँव का
आभास तो दे रहे
हर किसी के अवसान में
किसी न किसी का उत्थान है
इक ढल गया
इक उग गया
इक मिट गया
इक बन गया
इक डूब गया
इक उठ गया
इक छुप गया
इक खिल गया
इक खो गया
इक मिल गया
इक सो गया
इक जग गया
हर किसी के अवसान में
किसी न किसी का उत्थान है
काल के कगार पे
न शून्यता
न अभाव है
जो भी जैसा चाहिए
पा रहा संसार है
राजेद्र यादव और के. पी. सक्सेना की याद में
31 अक्टूबर 2013
सिएटल । 513-341-6798
छोटे-छोटे रह गए
सूरज भी चला गया
तारे सारे रह गए
रोशनी न खास है
छाँव भी घनी न है
फिर भी रोशनी और छाँव का
आभास तो दे रहे
हर किसी के अवसान में
किसी न किसी का उत्थान है
इक ढल गया
इक उग गया
इक मिट गया
इक बन गया
इक डूब गया
इक उठ गया
इक छुप गया
इक खिल गया
इक खो गया
इक मिल गया
इक सो गया
इक जग गया
हर किसी के अवसान में
किसी न किसी का उत्थान है
काल के कगार पे
न शून्यता
न अभाव है
जो भी जैसा चाहिए
पा रहा संसार है
राजेद्र यादव और के. पी. सक्सेना की याद में
31 अक्टूबर 2013
सिएटल । 513-341-6798
1 comments:
बड़ों के दुनिया से चले जाने का दुख होता है। चाहे हमने उन्हें personally जाना हो या सिर्फ उनके काम से, उस connection की याद आती है - उनकी वो कहानी हमने कब और कहाँ पढ़ी थी, क्या महसूस किया था, उसका क्या असर हुआ था हम पर - यह सब बातें मन में आती हैं। जो legacy वह छोड़ गये हैं, अब वही हमारे साथ रहेगी - उसमें कुछ नया add नहीं होगा - यह सोचकर भी एक ख़ालीपन सा महसूस होता है, एक finality सी लगती है।
आपने कविता में यह बात भी सही कही कि हर ending के साथ एक beginning भी होती है। यह सच है कि छोटे पत्ते भी बड़े होंगे, कुछ नया होगा - जीवन आगे चलता रहेगा।
अंत की lines मुझे बहुत, बहुत सुंदर लगीं:
"काल के कगार पे
न शून्यता
न अभाव है
जो भी जैसा चाहिए
पा रहा संसार है"
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