Tuesday, July 7, 2015

घरों के दाम बढ़ने लगे हैं


घरों के दाम बढ़ने लगे हैं
पारिवारिक मूल्य गिरने लगे हैं

सच है मगर सच नया नहीं है
धागे रामराज्य के खुलने लगे हैं

जलते-बुझते दीपक हैं हम सब
अंगारों से नाहक दहकने लगे हैं

वो अंदर है, भीतर है, अंतर है मेरा
कहनेवाले मूर्तियाँ पूजने लगे हैं

ख़्वाबों से आँखों का रिश्ता है झूठा
बिन चश्मे ख़्वाब दिखने लगे हैं

7 जुलाई 2015
दिल्ली | +91-11-2238-3670

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1 comments:

Anonymous said...


कविता दुनिया में हो रहे बदलाव पर ध्यान दिलाती है। जिन बातों को हम valuable समझते थे, जिनमें pride लेते थे, अब उन्हीं से दूर जा रहे हैं।
उसमें starting lines अच्छी लगीं:
"घरों के दाम बढ़ने लगे हैं
पारिवारिक मूल्य गिरने लगे हैं
सच है मगर सच नया नहीं है
धागे रामराज्य के खुलने लगे हैं"