पेट की आग
बुरी बला
कि जल के भी
जल न पाए
घर आकर ही
खाक में मिलेंगे
जो जल रहे थे उनसे
अब न जलेंगे
और कुछ दिन में
सब भूल-भाल के
ख़ुद भी निकल पड़ेंगे
ये आगज़नी रोज़ कहाँ होती है?
पेट की आग तो कभी बुझती नहीं है
—
ये पापी पेट का दोष नहीं
—
आँखों को क्या चाहिए?
कुछ छींटे पानी के
दो कांटेक्ट लेंस
या एक शानदार चश्मा
चेहरे को क्या चाहिए?
एक मग पानी
और थोड़ा सा साबुन
जरा सी क्रीम
जरा सा लोशन
कान को क्या चाहिए?
मात्र दो तार
जो सुनाते रहे
संगीत लगातार
पाँव को क्या चाहिए?
दो जोड़ी आरामदायक जूते
एक दौड़ने के लिए
एक दफ़्तर के लिए
हाथ को चाहिए
एक घड़ी
उंगली को चाहिए
एक अंगूठी
गले को चाहिए
एक हार
बदन को चाहिए
कपड़े दो-चार
जीभ को चाहिए
थोड़ी सी चाट
थोड़ी सी मिठाई
और एक गरमागरम चाय
पेट को चाहिए
दो वक़्त का भोजन
शरीर की ज़रुरतें हैं
बस इतनी ही
पर मन?
इसका पेट तो कभी भरता ही नहीं
इस मन, इस आत्मा का क्या करुँ?
इसे किस तरह से खुश करुँ?
इसे कैसे संतुष्ट करुँ?
ये शरीर तो नश्वर है
एक दिन मिट भी जाएगा
मगर आत्मा?
एक अच्छी-खासी मुसीबत है!
क्यूंकि ये तो कभी मरती भी नहीं!
राहुल उपाध्याय । 14 जून 2024 । सिएटल
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