कब्र के हुजूम में
ताकि अपने प्रियजन दफ़नाए जा सके
दो पल बैठ कर आंसू बहाए जा सके
अभी भी कुछ हरियाली बाकी है
अट्टालिकाओं के झुंड में
ताकि बच्चे तितलियों के पीछे भाग सके
नन्हें हाथ उड़ते गुब्बारों को पकड़ सके
अ
भी भी कुछ हरियाली बाकी है
काली सड़को के जाल में
ताकि थका हुआ मज़दूर थोड़ी देर सुस्ता सके
ठंड से जूझता बुज़ुर्ग थोड़ी देर धूप सेंक सके
सीमेंट के अथाह समंदर में
अभी भी कुछ पेड़ बाकी हैं
न कोई उन्हे सम्हालता है
न कोई उन्हे पानी देता है
सूरज भी ईर्द-गिर्द की मीनारों पर
धूप डाल कर मुँह फेर लेता है
फिर भी पेड़ बाज नही आते हैं
अपनी शाख को 'ट्रेफ़िक' में घुसाने से
वसंत में फूलों से लद जाने से
पतझड़ में 'स्वीपर' को छकाने से
बूढ़े हो चले हैं
मगर
अभी भी कुछ जान बाकी है
राहुल उपाध्याय | 9 अप्रैल 2008 | न्यू यार्क
1 comments:
Bahut hi intense aur sensitive poetic expression hai ek bade metro shaher ka, Rahul! Aapne New York ke sky scrapers ke experience ko bahut sundar poetry mein likha hai.
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