बादल
यदि न बरसे
तो निरर्थक है
छाँव अच्छी है
चिलचिलाती धूप से बचाती है
लेकिन बरसें नहीं तो
धान नहीं पकते
जलाशय नहीं भरते
काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती
प्यार की पीर नहीं बढ़ती
इधर-उधर डोलती घटा की
ज़िंदगी तब पूरी होती है
जब वह बरस जाती है
मिट जाती है
राहुल उपाध्याय । 13 अगस्त 2021 । सिएटल
4 comments:
जलाशय नहीं भरते
काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती
प्यार की पीर नहीं बढ़ती
सादर..
लेकिन बरसें नहीं तो
धान नहीं पकते
जलाशय नहीं भरते
काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती
प्यार की पीर नहीं बढ़ती
बेहतरीन रचना
वाह!बहुत सुंदर ।
बादल की बात के बीच में दो लाइन छाँव वाली मेल नहीं खा रहीं । बाकी रचना अच्छी है ।
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