Friday, August 13, 2021

बादल

बादल 

यदि न बरसे

तो निरर्थक है


छाँव अच्छी है

चिलचिलाती धूप से बचाती है


लेकिन बरसें नहीं तो

धान नहीं पकते

जलाशय नहीं भरते

काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती

प्यार की पीर नहीं बढ़ती


इधर-उधर डोलती घटा की 

ज़िंदगी तब पूरी होती है 

जब वह बरस जाती है 

मिट जाती है 


राहुल उपाध्याय । 13 अगस्त 2021 । सिएटल 






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4 comments:

Digvijay Agrawal said...

जलाशय नहीं भरते
काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती
प्यार की पीर नहीं बढ़ती
सादर..

Anuradha chauhan said...

लेकिन बरसें नहीं तो

धान नहीं पकते

जलाशय नहीं भरते

काग़ज़ की कश्ती नहीं चलती

प्यार की पीर नहीं बढ़ती
बेहतरीन रचना

शुभा said...



वाह!बहुत सुंदर ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बादल की बात के बीच में दो लाइन छाँव वाली मेल नहीं खा रहीं । बाकी रचना अच्छी है ।