शीशा टूटा
और हम दो से तीन हुए
जितना टूटा
उतना बिखरा
उतना पनपा
मैं और मेरे अक्स
काफ़ी हैं
आज़ादी का जश्न मनाने के लिए
ग़ुलामी की बू मिटाने के लिए
अकेलेपन का दर्द सहने के लिए
जेलर की उपस्थिति मिस करने के लिए
आज़ादी की क़ीमत
सिर्फ़ भगत सिंह ही नहीं चुकाते हैं
कई बार
ख़ुद को भी दाँव पर लगाना पड़ता है
राहुल उपाध्याय । 11 जनवरी 2022 । सिएटल
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