Thursday, October 6, 2022

स्विच ऑफ़

जब भी 

गली के उस मोड़ से

गुज़रता हूँ 

तुम्हारा आलिंगन 

तुम्हारी ज़ुल्फ़ें 

तुम्हारी आँखें 

अधखुले होंठ

गुदाज़ बदन 

नशीली ख़ुशबू 

सब याद आ जाते हैं 


कितने क़रीब थे हम

और अचानक 

न जाने कैसे

सब कुछ 

एक पल में ख़त्म हो गया 

जैसे कोई स्विच ऑफ़ हो गया


जैसे 

ज़िन्दगी 

स्विच ऑफ़ हो जाए

बिना किसी अग्रिम सूचना के


शायद शुरूआत भी ऐसे ही अचानक हुई थी

जिसकी हमें ख़बर ही न लगी

जैसे कि मेरा कभी जन्म हुआ था

यह मुझे बहुत बाद में पता चला

शायद चौदह वर्ष की उम्र में 

वह भी जब माँ ने बताया तब

कि एकादशी की रात थी

भयंकर पीड़ा थी

नाईन को लेने काका गए थे

और रात के एक बजे मैं आया था 


जन्म का तो कोई चश्मदीद गवाह था

प्यार का तो कोई नहीं 

पता ही न चला कब हो गया


क्या उस दिन

जब तुम बात-बेबात ख़ूब रोई थी

और मैं तुम्हें चुप कराता रहा


या उस दिन 

जब मैं अपने पिता के आपरेशन से परेशान था

और तुम मेरे साथ बनी रही


या उस दिन 

जब मैंने तुम्हें तुम्हारे पसंदीदा गीत सुनाए थे


या उस दिन 

जब तुमने ज़िद कर ली थी कि तुम फ़ोन नहीं रखोगी 


या उस दिन

जब मैंने तुम्हें कंगन पहनाए थे


या उस दिन

जब मैंने तुम्हें फूल दिए थे


या उस दिन

जब मैंने तुम्हें वादी की खुली हवा में सैर कराई थी 


(अब सोचता हूँ तो लगता है कि

गवाह थे

गवाह क्या दुश्मन थे

इसीलिए तो हम दोनों आज साथ नहीं)


राहुल उपाध्याय । 6 अक्टूबर 2022 । सिएटल 








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1 comments:

Prakash Sah said...

अंतिम पंक्ति तक पहुँचते-पहुँचते भावुक हो गया। संवेदना से भरी हृदयस्पर्शी रचना।