जब तक थी दिल्ली में
लगता था दिल्ली में
दिल मेरा
दिल्ली में रहने की
वो एक वजह बन गई थी
अब भरी हुई मेट्रो भी
ख़ाली लगती है
चाँदनी चौक में भी
भूख नहीं लगती है
मॉल की रौनक भी
फीकी लगती है
मिली थी मुझसे
यह संयोग था केवल
बिछड़ने की योजना
तो कबसे बनी थी
लग के गले
रोया न कोई
समझदारी भी कितनी
कितनी बुरी है
जा कर देखूँ
होटल का कमरा
नुक्कड़ का पेड़
सुन्दर बगीचा
तो पाऊँगा क्या?
भरकम सा ताला
निर्जीव सा पेड़
साय-साय करता
विरह का डेरा
राहुल उपाध्याय । 14 दिसम्बर 2022 । दिल्ली
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