Wednesday, December 14, 2022

जब तक थी दिल्ली में

जब तक थी दिल्ली में 

लगता था दिल्ली में 

दिल मेरा 

दिल्ली में रहने की

वो एक वजह बन गई थी

अब भरी हुई मेट्रो भी

ख़ाली लगती है 

चाँदनी चौक में भी

भूख नहीं लगती है 

मॉल की रौनक  भी

फीकी लगती है 


मिली थी मुझसे 

यह संयोग था केवल

बिछड़ने की योजना 

तो कबसे बनी थी


लग के गले 

रोया न कोई 


समझदारी भी कितनी

कितनी बुरी है 


जा कर देखूँ

होटल का कमरा

नुक्कड़ का पेड़ 

सुन्दर बगीचा

तो पाऊँगा क्या?

भरकम सा ताला

निर्जीव सा पेड़ 

साय-साय करता 

विरह का डेरा


राहुल उपाध्याय । 14 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 


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