अब मेरी कविता का उस पर असर नहीं होता
काश मेरा प्यार मजनूँ-रांझा से ऊपर नहीं होता
कितना कुछ लिख डाला मैंने इधर-उधर का
और शक़ उसे रत्ती भर का मुझ पर नहीं होता
पहले डरती थी कि कहीं है कोई और तो नहीं
अब उसे इसका-उसका-किसीका डर नहीं होता
वह जानती है, है सच तो है सोच भी सृजन में
वरना क़िस्मत का धनी कोई इस क़दर नहीं होता
अब तिथि तो छोड़ कविता भी नहीं पढ़ती है मेरी
काश कि घर का मुर्ग़ा दाल बराबर नहीं होता
राहुल उपाध्याय । 25 दिसम्बर 2022 । दिल्ली
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