कहती है
जब अपने पाँव पर खड़ी हो सकेगी
मुझसे सर उठा के बात कर सकेगी
अभी किसी की छत्र छाया में है
मुझसे बात करना ग़लत लगता है
जब तक वह बात करने लायक़ होगी
कई और ज़िम्मेदारियाँ
अपने सर ले चुकी होगी
न फ़ुरसत होगी
न इच्छा ही होगी
नदी भी सारी
सूख चुकी होगी
भावनाएँ सारी
फ़ना हो गई होंगी
एक आज्ञाकारिणी
का जीवन भी
कितना अजीब है
कर्तव्यों के बोझ में
बुझा देती है आग
न रहती है औरत
न हो पाती है मर्द
एक अलग ही जीव में
बदल जाती है
न उठती लहर है
न गिरती लहर है
न आँसू हैं बहते
न सूखते हैं आँसू
न बजते हैं गीत
न थिरकते हैं पाँव
ईश्वर से मोह भंग तो होना ही था
भीष्म प्रतिज्ञा का नशा चढ़ता ही जाता है
न जाने क्या है
ख़ुद को स्वावलंबी साबित करने में कि
सबसे हाथ खींचे वो चली जा रही है
राहुल उपाध्याय । 14 दिसम्बर 2022 । दिल्ली
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