Saturday, February 19, 2022

मंज़िल एक ही तो सबको अता होती है

कौन कहता है हर मर्ज़ की दवा होती है 

ये जो ज़ीस्त है ये तो यूँही फ़ना होती है 


हम भी आते तो आते ही होते रूखसत 

एक ख़िदमत न हमसे बजा होती है 


तेरी आँखों में कभी देखी थी रज़ा मैंने

आज उन आँखों में एक सज़ा होती है 


हम तो ढोते रहें साँसों को जेवर जैसे

अब ये जाना के ये बेवफ़ा होतीं हैं 


चलते-चलते कहीं भटक भी गए तो क्या 

मंज़िल एक ही तो सबको अता होती है 


राहुल उपाध्याय । 19 फ़रवरी 2022 । सिएटल 






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