बाबुल चाहे सुदामा हो
ससुराल चाहे सुहाना हो
नया रिश्ता जोड़ने पर
अपना घर छोड़ने पर
दुल्हन जो होती है
दो आँसू तो रोती है
और इधर
हर एक को खुशी होती है
जब मातृभूमि
संतान अपना खोती है
क्यूँ देश छोड़ने की
इतनी सशक्त अभिलाषा है?
क्या देश में
सचमुच इतनी निराशा है?
जाने कब क्या हो गया
वजूद जो था खो गया
ज़मीर जो था सो गया
लकवा जैसे हो गया
भेड़-चाल की दुनिया में
देश अपना छोड़ दिया
धनाड्यों की सेवा में
नाम अपना जोड़ दिया
अपनी समृद्ध संस्कृति से
अपनी मधुर मातृभाषा से
मुख अपना मोड़ लिया
माँ-बाप का दिया हुआ
नाम तक छोड़ दिया
घर छोड़ा
देश छोड़ा
सारे संस्कार छोड़े
स्वार्थ के पीछे-पीछे
कुछ इतना तेज दौड़े
कि न कोई संगी-साथी है
न कोई अपना है
मिलियन्स बन जाए
यही एक सपना है
करते-धरते अपनी मर्जी हैं
पक्के मतलबी और गर्ज़ी हैं
उसूल तो अव्वल थे ही नहीं
और हैं अगर तो वे फ़र्जी हैं
पैसों के पुजारी बने
स्टॉक्स के जुआरी बने
दोनों हाथ कमाते हैं
फिर भी क्यूँ उधारी बने?
किसी बात की कमी नहीं
फिर क्यूँ चिंताग्रस्त हैं?
खाने-पीने को बहुत हैं
फिर क्यूँ रहते त्रस्त हैं?
इन सब को देखते हुए
उठते कुछ प्रश्न हैं
पैसा कमाना क्या कुकर्म है?
आखिर इसमें क्या जुर्म है?
जुर्म नहीं, यह रोग है
विलास भोगी जो लोग है
'पेरासाईट' की फ़ेहरिस्त में
नाम उनके दर्ज हैं
पद-पैसो के पीछे भागना
एक ला-इलाज मर्ज़ है
राहुल उपाध्याय । 24 फ़रवरी 2007 । सिएटल
https://mere--words.blogspot.com/2008/05/blog-post_5101.html?m=1
1 comments:
माफ कीजिएगा आपकी यह रचना मुझे समझ नहीं आयी। विषय पकड़ना चाहा पर पकड़ नहीं पाया।
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