मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुक़द्दर होता
मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेखबर होता
आपत्तियों के पर्वत यदि न होते विशाल
विश्वविख्यात न आज सिकंदर होता
ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी होती तो अच्छी
लेकिन जीवन नीरस और बेअसर होता
सच्चे प्यार से न कभी होती मुलाकात
अगर झील सी आँखों में न समंदर होता
गर्व यदि होता हमें स्वयं पर
नालंदा आज न खंडहर होता
हाँ में हाँ यदि मिलाते सभी
मरघट सा यहाँ मंजर होता
परहेज़ जिसे कहता है डाक्टर
वही तो रोगी को प्रियकर होता
दुत्कारते न आप भरी सभा में मुझको
नाम मेरा न जाने कैसे अमर होता
छंद-मात्रा में यदि होता मैं सक्षम
मैं समक्ष आपके किताबों में छपकर होता
बहर-वजन का भी मैं रखता खयाल
जगजीत का मुझे मिला स्वर होता
दूसरों को बुरा भला जो कहते हैं लोग
उनके पास आईना नहीं अक्सर होता
थोड़ा सा सब्र जो कर लेते लोग
बात-बात पर न बवंडर होता
इंटरनेट की लड़ाईयाँ हैं बिट्स-बाईट्स तक सीमित
अन्यथा यहाँ महाभारत रोज जमकर होता
दिन-प्रतिदिन तो पकवान परोसें नहीं जाते
प्रत्येक दिन पर्व का नहीं अवसर होता
असम्भव था सिद्धार्थ का बुद्ध होना
राहुल संतान जो नहीं बनकर होता
सिएटल,
29 अप्रैल 2008
Tuesday, April 29, 2008
मुक़द्दर
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:16 AM
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Monday, April 28, 2008
तुम
तुम मुझसे थोड़ी देर पहले मिलती
तो मैं तुम्हें पुनश्च: लिख कर
अपने साथ जोड़ लेता
लेकिन अब तो
लिफ़ाफ़ा भी बंद हो चुका है
मोहर भी लग चुकी है
और खत डब्बे में भी डल चुका है
तुम मुझसे थोड़ी देर पहले मिलती
और तुम 'टू-डायमेंशनल' होती
तो तुम्हें 'फोटोशाप' द्वारा
अपने परिवार के 'पोर्ट्रैट' में जोड़ लेता
लेकिन मूर्तियाँ बन चुकी है
झांकीयाँ सज चुकी है
परेड निकल रही है
और सब देख रहे हैं
तुम मुझसे थोड़ी देर पहले मिलती
तो न जाने क्या क्या हो जाता
सोचता हूँ
आजकल दिल की कई बीमारीयाँ सही हो जाती हैं
'ओपन-हार्ट सर्जरी' भी होती है
लेकिन अभी भी क्यों एक दिल में दो नहीं रह सकते हैं?
रह तो सकते हैं लेकिन किसी एक से यह कह नहीं सकते
सिएटल,
28 अप्रैल 2008
============
Glossary:
पुनश्च: = ps, postscript
लिफ़ाफ़ा = envelop
मोहर = post-marked
'टू-डायमेंशनल' = two-dimensional
'फोटोशाप' = photoshop
'पोर्ट्रैट' = portrait
झांकीयाँ = floats, a vehicle bearing a display, usually an elaborate tableau, in a parade or procession
'ओपन-हार्ट सर्जरी' = open-heart surgery
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:21 PM
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Labels: intense, relationship, TG, valentine
भूलते नहीं हम
घर-घर होती है ऐसे ही भोर
प्लास्टिक के मग्गों में दहाड़ते पानी का शोर
लोहे की बाल्टी के हेंडल की खटपट
फ़्लश की गड़गड़ाहट
गीज़र की घरघर
घर-घर होती है ऐसे ही भोर
लेकिन भूल जाते हैं सब शोर किशोर
याद रहती हैं कुछ वो बातें
जो दिन-रात करती हैं भाव-विभोर
याद रहती हैं
माँ के हाथ की रोटी
पहली बरसात की भीनी खुशबू
देर रात तक दोस्तों की गुफ़्तगू
गाजर का रंग
अपनों का संग
भूलते नहीं हम
बचपन का बाग
सरसों का साग
सावन का राग
सर्दी की आग
भूलते नहीं हम
घुलते नहीं हम
जुड़ते नहीं हम
फलते नहीं हम
लिविंग रुम के कम्फ़र्ट में
कट फ़्लावर्स लगते हैं सुंदर
लेकिन पनपते हैं वो
कीचड़-मिट्टी में ही पल कर
सिएटल,
28 अप्रैल 2008
====================
Glossary:
भोर = morning
मग्गों = mugs
गीज़र = water heater
किशोर = youth
लिविंग रुम = drawing room
कट फ़्लावर्स = cut flowers
पनपते = thrives
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:51 AM
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समाचार
कभी पेरिस हिल्टन
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:32 AM
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Labels: Obama, US Elections
Thursday, April 24, 2008
शोर गुल है
पहले शोरगुल था
अब शोर गुल है
पहले साथ कुल था
अब अकेले बिलकुल है
हरी-हरी घास है
खिले-खिले फूल हैं
चहकती नहीं
मगर बुलबुल है
मैं भी मशगूल हूँ
वो भी मशगूल है
नदी तो है बहती
पर टूटा हुआ पुल है
संगी साथी सब
मुझे जाते भूल हैं
याद मुझे बस
आता बाबुल है
कभी अनुकूल है
कभी प्रतिकूल है
लिखता मगर
सदा राहुल है
सिएटल,
24 अप्रैल 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:01 PM
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Labels: relationship
Wednesday, April 23, 2008
Stress मिटाने वाले stress दे रहे हैं
Stress मिटाने वाले stress दे रहे हैं
सेमिनार attend करो जोर दे रहे हैं
जल्दी करो, जल्दी करो,
आखरी सेमिनार है
चले आओ, चले आओ,
क्या सोच, क्या विचार है?
Email से कैसे बचा जाए, बतला रहे हैं
Email भेज भेज कर, हमें समझा रहे हैं
30 साल से आप अपने आप जिए जा रहे हैं
लेकिन 'जीने की कला' वो अब समझा रहे हैं
स्कूल-काँलेज आदि में क्यों नहीं सीखा रहे हैं?
कमाने वालो का ही बस क्यों दिमाग खा रहे हैं?
क्यूंकि रकम मिले तगड़ी जहाँ वहीं जा रहे हैं
जीना अगर आ ही गया है तो क्यो न खुशी से जी पा रहे हैं?
नगर नगर लेक्चर-सेमिनार में क्यों धक्के खा रहे हैं?
क्यूंकि जीने के लिए पर्याप्त धन नहीं कमा पा रहे हैं
सांस लेना भी क्या कोई सीखने का काम है?
इसके लिए फ़ीस लेना सरासर कत्ल-ए-आम है
मनुष्य के डी-एन-ए में ये कला पहले से विराजमान है
सोना, जागना, रोना-धोना, खाना-पीना जिसमें प्रधान है
वेद और उपनिषद पर हिंदू को गर्व है अभिमान है
इन्हीं की आड़ में साधु-स्वामी रचते अभियान है
ये कलयुग की महिमा है ये कलयुग का ज्ञान है
इन लुटेरों के हाथों हो रहा तथाकथित उत्थान है
सिएटल,
23 अप्रैल 2008
पहेली 18
अगर नोट होता ऐसा तो कद्र बिलकुल न करते
अगर नोट निकाले अच्छे तो वाह-वाह करते न थकते
दर्जी अगर काटे तो हुनर उसे है कहते
कोई और अगर काटे तो मर्डर उसे है कहते
जल्दी बूझे जल्दी बूझे समय निकला जा रहा है
इसके बिना तो एक भी निवाला न निगला जा रहा है
[इस पहेली का हल अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है। उदाहरण के तौर पर देखे 'पहेली 1'. या अन्य पहेलियां ।
आप चाहे तो इसका हल comments द्वारा यहां लिख दे। या फिर मुझे email कर दे इस पते पर - upadhyaya@yahoo.com ]
Posted by Rahul Upadhyaya at 8:53 AM
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Tuesday, April 22, 2008
पहेली 17
न काम है न क्रोध है
न मद है न लोभ है
कर्मयोग के भक्त हैं
सारी वासनाओं से मुक्त हैं
न धन है न दौलत है
न ज़मीन-जायदाद है
न जात है न पांत है
न कोई वाद-विवाद है
न माया है न मोह है
न किसी से सरोकार है
न स्वामी है न नौकर है
न कोई मोटरकार है
बुझिए तो सही
किसका ज़िक्र इस बार है?
ये भी हाड़-मांस के पुतले हैं और ये भी तो नश्वर हैं
लेकिन मूर्ति-मंदिर आदि बनाकर पूजते नहीं ईश्वर हैं
मनुष्य हर क्षेत्र में स्वयं को मान बैठा प्रवीण है
लेकिन इनकी तुलना में हम और आप क्षीण हैं
[इस पहेली का हल अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है। ध्यान से देखे तो साफ़ नज़र आ जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखे 'पहेली 1'. या अन्य पहेलियां । आप चाहे तो इसका हल comments द्वारा यहां लिख दे। या फिर मुझे email कर दे इस पते पर - upadhyaya@yahoo.com ]
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:33 AM
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Monday, April 21, 2008
सृष्टि का निर्माण
सृष्टि का निर्माण सुनो bug-free नहीं है
तभी तो निर्माता को मिली degree नहीं है
कहीं है समंदर तो कहीं पर है जंगल
कहीं है बरफ़ तो कहीं है मरुस्थल
जहाँ एक भी पेड़ की inventory नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
करता है क्या कुछ पता नहीं है
चाहता है क्या वो भी पता नहीं है
उसके ठौर-ठिकाने की directory नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
कभी सतयुग बनाता है तो कभी कलयुग बनाता
खुद ही बचाता है और खुद ही सताता
consistent performance की history नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
कराता है गड़बड़ और फिर भेजता है अवतार
मानो हो जैसे ये कांग्रेस या बुश की सरकार
जिसमें moral conscious नाम की ministry नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
नये version में बंदर आदमी बन गए हैं
साथ में उल्लू के भी कुछ गुण आ गए हैं
upgrade की progress खास satisfactory नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
आज से दो हज़ार साल पहले उसने भेजा था 'बेटा'
अगली release की प्रतीक्षा में अभी तक ज़माना है बैठा
लगता है subject matter पर उसकी mastery नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
सुना है उसके infinite हैं powers
उसके ही इशारे से खिलते हैं flowers
पर मेरे दर्द की दवा की dispensary नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
जो होना चाहिए था वही तो हो रहा है
जो विधाता ने ठानी थी वही तो हो रहा है
global warming की भी जिम्मेदार industry नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
धरती पर प्रलय तो आएगा एक दिन
सूरज भी भस्म हो जाएगा एक दिन
प्रकाश की ये perpetual battery नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
हम आए कहाँ से हमें जाना कहाँ है?
bug ने भूलाया हमें सब कुछ यहाँ है
सीधी सी बात है कोई mystery नहीं है
सृष्टि का निर्माण …
सिएटल,
21 अप्रैल 2008
============
Glossary:
सृष्टि = nature, world
निर्माण = construction
निर्माता = creator
Bug-free = with no errors
Degree = an honorary recognition of achievement.
मरुस्थल = desert
बेटा = 1. son 2. A beta version is the first version released outside the organization or community that develops the software, for the purpose of evaluation or real-world black/grey-box testing.
Inventory = a catalog
ठौर-ठिकाने = wherabouts
प्रलय = apocalypse, any universal or widespread destruction or disaster
Friday, April 18, 2008
पहेली 16
जिससे आनी चाहिए थी खुली हवाएं
वो चंगुल में सारा जहां जकड़ रहा था
इतनी जमा हो गई थी दौलत
कि सब के सामने अकड़ रहा था
इंटरनेट ने जब दी इसे चुनौती
इन्डस्ट्री को एक राहत मिली है
टर्मिनल पेशियंट को जैसे
रामबाण दवा की नवीन डोज़ मिली है
[इस पहेली का हल अंतिम पंक्ति में छुपा हुआ है। ध्यान से देखे तो साफ़ नज़र आ जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखे 'पहेली 1'. या अन्य पहेलियां । आप चाहे तो इसका हल comments द्वारा यहां लिख दे। या फिर मुझे email कर दे इस पते पर - upadhyaya@yahoo.com ]
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:38 PM
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काव्य का व्याकरण
व्याकरण हो या फिर वो कर्ण प्रिय हो
तब जा कर ही कोई काव्य दिव्य हो
ऐसा तो कोई विधान नही है
कविता लिखने की कोई विधि नही है
कविता कविता है
कोई दाल-भात नही है
न पकाने के नियम है
न बरतना एहतियात है
कि अगर ज्यादा मिर्ची पड़ गई
तो किसी का हाजमा बिगड़ जाएगा
नमकीन में अगर चीनी डाल दी
तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा
अरे कवि, तुम डाल कर तो देखो
ज्यादा से ज्यादा
एक पन्ना व्यर्थ हो जाएगा
कवि का संसार बहुत बड़ा है
किसी एक दायरे में समाता नहीं है
सामने हो पकवान
फिर भी खाता नहीं है
बरसती है बरसात
साथ में होता छाता नहीं है
बुरा भला कहने से
कभी शरमाता नहीं है
और कोई कुछ कह दे
तो बिलख जाता नहीं है
बंध के रह जाएगा
कवि किसी काव्य शास्त्र में
ऐसी कभी आशा नही थी
जब पहला दोहा लिखा गया
तब दोहे की परिभाषा नहीं थी
पहले कवि लिखता है रचना
फिर बाद में होती है उसकी आलोचना
आलोचक-समीक्षक ढूंढते हैं pattern
मिल जाए कुछ तो उसे कहते हैं शैली
बनाते हैं नियम
लिख डालते हैं शास्त्र
ठीक वैसे ही जैसे
Stock market के crash के बाद
तमाम analyst लगाते हैं अटकलें
और रच डालते हैं एक पूरा शास्त्र
जिसके नियम में शेयर बाज़ार बंधता नहीं है
हर दिन एक नया रुप करता है धारण
ये तो था महज एक उदाहरण
पर क्यों नाहक ढूंढते हो कारण
जो लिखना है उसे लिखते चलो
लिखो, पढ़ो और आगे बढ़ो
वाह-वाह के चक्कर में कभी न पड़ो
ये ज़रुरी नहीं कि
पाठक-श्रोता सारे मस्त हो
या सर पर किसी का कोई वरद-हस्त हो
कविता कविता है
चाहे जैसी बन पड़ी है
चाहे किसी को लगे अच्छी
या कोई कहे कि ये सड़ी है
राहुल उपाध्याय | 18 अप्रैल 2008 | सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:38 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: world of poetry
Tuesday, April 15, 2008
15 अप्रैल
काम कर कर के कर दु:ख गए
फिर भी सरकार को दया न आई
कर के नाम पर छीन रही
गिन गिन कर एक-एक पाई
किस तरह की सरकार है पाई
सरेआम लुट रही मेरी कमाई
तरह तरह के उलटे-सीधे
कर दिये नियम इसने खड़े
उधार लो तो कर घटे
बचत करो तो कर बढ़े
छोटे बड़े सब फ़ंसे
उलट-गणित के चक्कर में पड़े
चार प्राणी का परिवार है
और खरीद रहे घर बड़े-बड़े
कर से ही सरकार चले
कर से ही देश फूले-फले
माना चलो बात सही है
पर टेढ़ी-मेढ़ी क्यूँ चाल चले?
कर लेना है तो पहले ले लो
बाद में क्यूं मेरे पीछे पड़े?
accountant की दुकान चले
TurboTax की महिमा बढ़े
उम्मीदवार जितने भी खड़े
हिम्मत नही जो इनसे लड़े
मंदिर-मंदिर जा जा कर
सुना रहा मैं दुखड़े बड़े
राम, कृष्ण, दुर्गा आदि
जितने भी भगवान खड़े
कोई तो एक अवतरित हो
और आ कर इन्हें तमाचा जड़े
कभी तो हमें राहत मिले
15 अप्रैल से छुट्टी मिले
सिएटल,
15 अप्रैल 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:49 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: news, US Elections
Monday, April 14, 2008
मैं घर जाने लगा हूँ
मैं घर में ही रहता हूँ और घर जाने लगा हूँ
मैं जहाँ हूँ वहीं मंज़िल पाने लगा हूँ
है सब कुछ यहीं पर
यहीं है यहीं पर
मैं खुद को खुद से मिलाने लगा हूँ
नही और कोई दूसरा जहां है
जो है वो यही है
यहीं है यहाँ है
मैं हर इक चीज को अपनाने लगा हूँ
न कोई मुझसे कहता है
न मैं किसी की सुनता
मैं अपने आप चिर-धुन गाने लगा हूँ
कोलम्बिया बेसिन के आसपास,
14 अप्रैल 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:10 PM
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Labels: intense
वीसा से वीसा तक
हुआ स्नातक, मिली दिशा
जैसे तैसे हथियाओ वीसा
वीसा आँफ़िसर से झूठ बोला
हनुमान जी को चढ़ा चोला
तिरुपति को दिया पैसा
तब जा के मिला वीसा
डाँलर को ही सदा पूजा
इसके सिवा न दिखा दूजा
पहले आया पासपोर्ट में वीसा
फिर आया पर्स में वीसा
अर्थ चंदन इतना घिसा
छा गई घोर निशा
अच्छा खासा कमाता था
हँसता था, हँसाता था
'लोन' लिया, 'लोनली' हुआ
सुख चैन उड़न छू हुआ
इरादा था बनूँगा राजा
बज गया मेरा ही बाजा
ये उलट-फेर कैसे हुआ?
किसकी लगी बद-दुआ?
धन के आगे भी जहान था
इससे मैं अनजान था
पापी पेट का दोष नहीं
मन को ही संतोष नहीं
बिल्डिंग ज़रूर बनी अच्छी थी
नींव मगर बहुत कच्ची थी
राहुल उपाध्याय | 14 अप्रैल 2008 | मोंटाना के गगन में
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:06 PM
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Labels: Anatomy of an NRI, nri
Sunday, April 13, 2008
ओझल
वो मील का पत्थर मेरी आँखों से ओझल नहीं होता
दिल पर न होता पत्थर तो सफ़र बोझल नहीं होता
कभी बनता है वो पथ तो कभी मिलता है पत्थर बनकर
वो जो भी है जैसा भी है मुझसे जुदा दो पल नहीं होता
हर बात गले से नीचे तो उतरती नहीं है
हर मर्ज़ का इलाज तो बोतल नहीं होता
मिलता है सबूत नूर-ए-कुदरत का चमन में
काँटों में पल कर तो गुलाब कोमल नहीं होता
जीवन है कहानी जिसे नानी थी सुनाती
पहले से पता जिसका 'मोरल' नहीं होता
राहुल उपाध्याय | 13 अप्रैल 2008 | वाशिंगटन डी सी
21 वीं सदी का कवि सम्मेलन
फिर से वही घिसा-पीटा चुटकला सुनना ही पड़ेगा
लालू, मनमोहन, सोनिया को
सहते ही रहेंगे
आलू-समोसा-चाट आदि
खाते ही रहेंगे
जब टिकट है खरीदा
तो कम से कम पेट तो भरेगा
कवि सम्मेलन में …
कवि है वही कवि
जिसे न लाज शरम है
ताली की भीख मांगना
जिसका एक मात्र धरम है
गिर गिर के खुद को
एक दिन नष्ट करेगा
कवि सम्मेलन में …
कब तक चलेगा ये?
कब जा के रुकेगा?
कब तक भला श्रोता
ऐसे ही पैसे फूंकेगा?
blog और YouTube के आगे
सम्मेलन बेमौत मरेगा
कवि सम्मेलन में …
वाशिंगटन डी सी,
13 अप्रैल 2008
(शकील बदायुनी से क्षमा याचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:16 PM
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Labels: parodies, Shakeel, world of poetry
संगठन
आजकल हर मोहल्ले का संगठन बन बैठा 'ग्लोबल' है
बाँटते हैं प्रशस्ति पत्र जैसे बाँटें जा रहे 'नोबल' हैं
कंधे से कंधे मिला कर जो मंच पर खड़े उस दिन थे
अलग अलग संगठन बनाते नज़र आए वो कल हैं
अपने बेटी बेटे और कुनबे की परेड का ये स्थल है
देश या समाज की सेवा का दिखता नहीं मनोबल है
पद-प्रशंसा की लालसा से फलती-फूलती है चापलूसी
देखते हैं तमाशा सब मिलता नहीं कोई 'वोकल' है
राहुल उपाध्याय | 13 अप्रैल 2008 | वाशिंगटन डी सी
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:13 PM
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Saturday, April 12, 2008
सच
मैं लिखता नहीं हूँ
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:04 PM
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Labels: 24 वर्ष का लेखा-जोखा, bio, intense
Wednesday, April 9, 2008
मरते दम तक
मोह पद का
कल तक जो बाते करते थे फूल-पत्तें और चाँद-सितारों की
आज बातों-बातों में दुनिया खड़ी कर बैठे है दीवारों की
हर-एक बात से मतलब की बू आती है आज
कल तक कद्र करते थे जिनके विचारों की
कल तक जो नारें लगाते थे आज़ादी के
आज बात कर रहे हैं बहिष्कारों की
कल तक जो दावा करते थे खुले मंच का
आज टोलियां बना रहे है गिने-चुने यारों की
न्यू यार्क
9 अप्रैल 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:12 PM
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Monday, April 7, 2008
संस्कृति: विकास या विनाश? एक लेख
पिछले महीनें मेरे छोटे पुत्र, मिहिर, की अद्यापिका ने मेरी पत्नी, मंजू, से अनुरोध किया कि वे भारतीय संस्कृति की झलक उनकी कक्षा के सामने प्रस्तुत करे। मिहिर अभी छ: वर्ष का है और किंडर्गार्टन में पढ़ता है। उसकी कक्षा में विश्व की अन्य संस्कृति से जुड़े हुए बच्चे भी पढ़ते हैं। और ये अनुरोध उन की माताओं से भी किया गया था ताकि हर संस्कृति की झलक पूरी कक्षा को मिल सके।
आजकल कोई भी प्रस्तुति बिना पाँवरपाईंट के संभव नहीं है। लिहाजा मंजू ने भी पाँवरपाईंट का स्लाईड शो तैयार किया। पिछले कई वर्षों में हमने भारत की कई बार यात्रा की और हर बार वहां से कुछ न कुछ सामान लाते रहे। उनमें से कुछ वस्तुओ की प्रदर्शनी भी लगाई गई। वे मिहिर के सहपाठियो को भारत की संस्कृति की झलक दिखाने में उपयोगी साबित हुई।
इस घटना को ले कर मेरे मन में एक जिज्ञासा जागी कि आखिर संस्कृति किसे कहते हैं? भाषा, धर्म, खान-पान, वस्त्र-परिधान, कला, दर्शन, खेलकूद, रस्म-रिवाज़, मिलने-जुलने के तरीके, और रहने का ढंग। शायद इन सब को मिला कर ही बनती है संस्कृति।
जब मैंने अपने इर्द-गिर्द देखा तो नज़र आया कि मैं कितना दूर चला आया हूं अपनी संस्कृति से। मेरी मातृभाषा मालवी थी। जब से रतलाम-सैलाना छोड़ा, उसे भी छोड़ दिया। इंजीनियरिंग की शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई। और फिर अमेरिका में कार्यरत होने की वजह से दिन में तो अंग्रेज़ी बोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। मगर धीरे-धीरे परिवेश और संगत की वजह से हर वक़्त अंग्रेज़ी ही बोलने लगा। गैर-भारतीय मित्रो के साथ तो अंग्रेज़ी बोलता ही था, भारतीय मित्रों के साथ भी अंग्रेज़ी बोलने लगा। उसकी वजह पहले तो यह थी कि हर भारतीय हिंदी नहीं बोल सकता। और अगर कोई हिंदी भाषी अगर हो भी तो माहौल की वजह से अंग्रेज़ी बोलने में आसानी होती थी। जैसे कि आप कहना चाहे कि आज आँफ़िस में क्या हुआ तो उसे अंग्रेज़ी में बताना ज्यादा आसान लगता है। या अगर आप राजनीति के बारे में चर्चा करना चाहे तो जो टिप्पणी आपने अखबार में पढ़ी या टी-वी पर सुनी, उसे ही कमोबेश दोहराएगे। ज़ाहिर है, अमेरिका में आप अंग्रेज़ी का अखबार ही पढ़ेगे और टी-वी पर भी अंग्रेज़ी में ही टिप्पणी सुनेगे। तो आपकी चर्चा भी अधिकांश रुप से अंग्रेज़ी में ही होगी।
ये तो रही दफ़्तर और दोस्तों की बात। मगर, धीरे-धीरे आप अपनी पत्नी से भी अंग्रेज़ी में ही बात करने लगते हैं। अगर कोई मतभेद हो तब तो ये और भी आवश्यक हो जाता है कि आप अपनी बात को अंग्रेज़ी में ही कहे। ऐसा लगता है कि अगर अंग्रेज़ी में कहे तो बात में दम होगा। "Don't touch me." "Fine." "I don't know." आदि, आदि।
जब देश छोड़ा था, हवाई जहाज पकड़ कर छोड़ा था। ज़ाहिर है, हवाई जहाज में तो पेंट-शर्ट ही पहन कर चढ़ना था। उस दिन के बाद से पेंट-शर्ट-जैकेट उतरे ही नहीं। कभी किसी को सलवार-कमीज़ या कुर्ते-पजामे में दुकान पर दूध-सब्जी-भाजी खरीदते देख लो तो शर्म आने लगती है। "कैसे जाहिल इंसान हैं। हमारी नाक कटवा दी। जैसा देस, वैसा भेस।" वगैरह, वगैरह। एकाध बार अगर किसी होली-दीवाली पर कुर्ता-पजामा पहन भी लिया तो ये एहतियात ज़रुर रखा जाता है कि सीधे-सीधे वापस घर आया जाए। अगर किसी वजह से वहीं से सीधे आँफ़िस जाना हो या बज़ार जाना हो तो पेंट-शर्ट साथ में रख कर चलते है ताकि एन-मौके पर परिधान बदल सके।
इस तरह भाषा त्याग दी संगत की वजह से। और कपड़े पहले त्यागे थे ठंडे मौसम की वजह से। मगर धीरे-धीरे उनकी वजह बदलती जाती है। अच्छी खासी गर्मी होती है अमेरिका में भी। हम टी-शर्ट-शार्टस् पहन सकते है मगर कुर्ता-पजामा नहीं।
हर शादी में दुल्हन खूब गहने पहनती है। मगर उसके बाद वे सीधे बैंक के लाँकर में शरण लेते हैं। साल में एक बार भी निकल आए तो गनीमत है। घर में रखे तो चोरी का डर है।
घर में कोई भी व्यास रचित महाभारत नहीं रखता है। बहाना ये कि अगर इसे रखा तो घर में महाभारत हो जाएगी। रामायण भी नहीं रखते हैं। न गीता, न उपनिषद, न वेद, न सूरदास, न रसखान। कई बहाने हैं। एक तो भाषा या तो हिंदी नहीं है और है तो वो क्लिष्ट है। हम कान्वेंट पढ़े-लिखे बच्चों को कहां समझ में आने वाली है। और अगर गलती से किसी ने हमें रामायण, गीता आदि पढ़ते देख लिया तो क्या कहेंगे कि 'ये हिंदू फ़ंडामेंटलिस्ट है या फिर ज़रूर हिंदू मदरसा चला रहा है।'
घर में पूजा-पाठ का भी नित्यकर्म नहीं है। घर खरीदने पर लोग गृहप्रवेश ज़रूर करवाते है किसी स्थानीय पंडित को पैसे दे कर। उसके बाद तो बस दिन रात की भागा-दौड़ी। पूजा करने के लिए नहाना ज़रुरी है। और यहां तो कई बार आँफ़िस में मीटिंग इतनी जल्दी होती है कि बस हाथ मुंह धो कर जाने में भी देर हो जाती है। नहाना-पूजा-नाश्ता तो दूर की बात है।
और फिर पूजा में दीप-अगरबत्ती जलाई तो डर है कि कहीं मिलियन डाँलर में लकड़ी का बना घर जल-जला कर राख न हो जाए। घंटी और शंख बजाने से अड़ोसी-पड़ोसी शिकायत करते है कि आप शोर कर रहे हैं। इसलिए कुछ लोग भगवान को किचन की अलमारी में बंद कर लेते हैं। कभी कभी दरवाजा खोल कर हाथ जोड़ लिया, वहीं पूजा है उनके लिए। बाकी इस बैसाखी का सहारा लेते हैं कि 'भगवान तो मेरे अंदर है। ये घंटी बजाना, दीप जलाना, भगवान की तस्वीर-मूर्ति को तिलक लगाना सब पाखंड है।' और एक हद तक ये बात सच भी है। मगर, किसी कार्य का अगर नियम न हो तो वो कार्य कभी पूरा नहीं होता है। बच्चे नियम से स्कूल जाते है, इसीलिए शिक्षा पाने में सफ़ल होते है। घर पर भी उन्हे शिक्षा दी जा सकती हैं, जो स्कूल में मिलती है। परंतु घर पर नियम-अनुशासन के अभाव में ये मुमकिन नहीं हो पाता है। यही बात व्यायाम पर भी लागू होती है। जब तक आप तय न कर ले कि मुझे हर सोम, बुध और शुक्र को 6 से 7 बजे तक दौड़ने जाना है, तो ये संभव ही नहीं है कि आप महीने में 4-5 बार से ज्यादा दौड़ पाएगे। इसी तरह, भगवान तो आपके अंदर है, मगर आप अगर नियमपूर्वक ध्यान न करे, तो एक महीना बीत जाएगा और आप पाएगे कि आप ने भगवान को याद ही नहीं किया।
आजकल घरों में गणेश जी और नटराज की मूर्तियां खूब नज़र आती हैं। मगर इन्हे साज-सजावट की वस्तु माना जाता है। इनके सामने आप जूते उतार सकते हैं। ये आपकी पीठ पीछे हो सकते हैं। आप इनके सामने शराब पी सकते हैं और जो चाहे खा सकते हैं। खाने की झूठी प्लेट रख सकते हैं। और उनके सामने ही टी-वी पर हर तरह की फ़िल्म देख सकते हैं।
भारतीय भोजन भी बहुत कम बनता है घरों में। जो कुंवारे लड़के हैं, उन्हे तो बना बनाया बहाना मिल जाता है कि हमने कभी बनाया नहीं तो अब क्यों बनाए? और जो शादी-शुदा है उनमें ये तर्क कि भारतीय खाना बनाने में कई इल्लत हैं, अड़चने हैं। आटा मलो, रोटी बेलो, उसे तवे पर सेंको और फिर आग पर। बाप रे बाप! इतना काम? ब्रेड में क्या बुराई है? सैंडविच सबसे अच्छी। सस्ती, सुंदर और टिकाउ। और पास्ता भी बहुत अच्छा है। दफ़्तर ले जाओ तो गर्व से सबके साथ मिल-बैठ के खा सकते हो। अगर दाल-रोटी हुई तो छुप कर अकेले, एक कोनें में, बैठ के खाना होगा। उपर से किचन में गरम करते वक़्त दुनिया भर की बदबू जो फ़ैलेगी, वो अलग। शरम के मारे किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं बचेंगे।
हाँ, आँफ़िस वालों को भारतीय होटल में लंच बफ़ें के लिए ज़रूर ले जाएंगे और शान से बताएगे कि ये क्या है और कैसे बनती है। और खुद भी एकाध बार शनिवार को छौले-भटूरे, आलू-टिक्की खाने के लिए किसी होटल में चले जाएगे। मगर जैसे जैसे उम्र बड़ती है, वैसे वैसे डायटिंग और स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए वो भी कम हो जाता है।
तो कुल मिला कर हम न तो अपनी भाषा बोलते हैं, न अपनी संस्कृति के कपड़ें पहनते हैं, न अपनी संस्कृति का खाना खाते हैं, न अपनी संस्कृति की किताब पढ़ते हैं, न अपनी संस्कृति के हिसाब से नित्यकर्म करते हैं। आखिर क्यूं? वजह कई हैं। बहाने कई हैं। मगर सच पूछिए तो हमें अपनी संस्कृति पर गर्व नहीं हैं। उलटा हमें लाज आती हैं। सामने वाला सोचेगा, हम अभी अभी गाँव से आए हैं।
इसकी जड़ क्या है? सोचता हूं कहाँ से शुरु करु? चलिए शुरु करता हूं बच्चे के जन्म से। जच्चा, यानि बच्चे की होने वाली माँ, एक कामकाजी औरत है आजकल। उसका भी एक कैरियर है। वह बच्चे की डिलिवरी को भी एक प्रोजेक्ट की डिलिवरी की तरह देखती है। कैलेंडर में एक दिन, एक समय निश्चित कर लिया जाता है। उस दिन वह पूरी तैयारी के साथ जाती है अस्पताल डिलिवरी के लिए। वहां से घर भी आती है तो जैसे कि कोई खास बात नहीं। कोई औपचारिकता नहीं। घर पर कोई स्वागत के लिए नहीं। एक कमरा जरुर सजा दिया जाता है बच्चे के लिए। वो लड़को के लिए अलग होती है और लड़कीयों के लिए अलग। रंगभेद यहीं से शुरु होता है। और फिर डिस्ने के जाने-पहचाने कार्टून चरित्रों से कोना कोना भर दिया जाता है।
जैसे ही मेटर्निटी छुट्टी खत्म होती है, माँ तुरंत पहुंच जाती है काम पर। कैरियर जो चलाना है। और फिर घर के खर्चे कैसे पूरे होगे? बच्चे को डे-केयर में डाल दिया जाता है। डे-केयर की सुविधा सुबह 6 से ले कर शाम की 6 बजे तक ही उपलब्ध होती है। पर इन 12 घंटे के एक-एक मिनट का पूरा-पूरा लाभ उठाया जाता है। और फिर रात को वहीं खाना बनाने-खाने की परेशानी और घर को सम्हालने की जिम्मेदारी। इन सब के बीच माहौल शांतिमय नहीं रह पाता। आदमी हांफ़ता ही रहता है हफ़्ते भर। और फिर यही क्रम दुबारा अगले हफ़्ते।
बच्चा झूला झूलता है पर माँ-बाप इतने व्यस्त है कि बैटरी का सहारा लेना पड़ता है। बच्चों को लोरियां अच्छी लगती है। पर वो भी सी-डी के द्वारा ही सुनाई जाती है। ऐसा नहीं है कि माँ अच्छी गायक नहीं है, इसलिए नहीं गाती है। वजह सिर्फ़ वक़्त की है और अहमियत की है। कैरियर बनाना है तो बच्चे के लिए ये इलेक्ट्रानिक उपाय ज़रुरी है। शनि-रवि को जब डे-केयर बंद होता हैं तो टी-वी का सहारा लिया जाता है - जो बच्चे को बहला सके, रीझा सके, और माँ-बाप के रास्ते से उसे हटा सके।
सोचता हूं कि जब बच्चा बड़ा होगा तो उसे बचपन कैसे याद आएगा? झूला जो अपने आप चल रहा था? लोरी जो दीवारों से आ रही थी? टी-वी जो उसके अकेलेपन का साथी था?
जैसे जैसे बच्चे बड़े होते है, वे इलेक्ट्रानिक खिलौनों की ओर मोहित होते चले जाते है - कभी विडियो गेम्स, कभी एक्स-बाँक्स, कभी गेम-बाँय, कभी निनटेनडो। और तब जा कर माँ-बाप, जो तब तक बूढ़े होने लग जाते है, सोचते हैं कि बच्चे आखिर हम से बात क्यो नहीं करते हैं? कोई घर आता है तो उनसे दुआ-सलाम क्यो नहीं करते हैं?
बच्चे माँ-बाप के ही कदमों पर चलते हैं। आजकल चरण-स्पर्श का रिवाज़ खत्म हो चुका हैं। फ़िल्मफ़ेयर पुरुस्कार समारोह में नए सितारे अमिताभ आदि के चरण-स्पर्श का अभिनय ज़रुर करते हैं। पर उसे घुटना-स्पर्श कहना उचित होगा। चलिए चरण-स्पर्श छोड़ दिया, पर क्या आप ने हाथ मिलाना या गले लगाना सीख लिया? जी नहीं। अपनी संस्कृति तो हम भूल रहे हैं पर साथ में ऐसा नहीं है कि हम किसी और संस्कृति को अपना रहे हैं। पूजा-पाठ करना छोड़ दिया पर ये नहीं कि चर्च जाना शुरु कर दिया। हमने हमारे सांस्कृतिक ग्रंथ पढ़ना बंद कर दिया, पर ये नहीं कि किसी और ग्रंथ में रुचि जागी हो। वास्तव में हम संस्कृति-हीन होते जा रहे हैं। हमारे कोई उसूल नहीं है, कोई नियम नहीं हैं, कोई धर्म नहीं है, कोई दर्शन नहीं है, कोई आद्यात्म नहीं है, कोई नीति नहीं है, कोई कला नहीं हैं। गाना कोई सीखता नहीं, चित्रकारी करना कोई सीखता नहीं, नाटक कोई देखता नहीं, वाद्ययंत्र बजाना कोई सीखता नहीं, कविता-कहानी में कोई रुचि नहीं। फ़िल्में 3 घंटे की होती हैं तो वे ज़रुर देखी जा सकती हैं।
किसी की मदद भी करने कोई जाता नहीं। हर ज़रुरत के लिए 'सर्विस' जो तैयार है। ऐयरपोर्ट जाना हो तो शटल है, टैक्सी है। कार खराब हो तो, ट्रिपल-ए है। बीमार हो तो डाँक्टर है। भूख लगे तो होटल है। कहीं रुकना हो तो मोटल है। सब से कटे कटे से रहते हैं।
स्विच दबाते ही हो जाती है रोशनी
सूरज की राह मैं तकता नहीं
गुलाब मिल जाते हैं बारह महीने
मौसम की राह मैं तकता नहीं
इंटरनेट से मिल जाती हैं दुनिया की खबरें
टीवी की राह मैं तकता नहीं
ईमेल-मैसेंजर से हो जाती हैं बातें
फोन की राह मैं तकता नहीं
डिलिवर हो जाता हैं बना बनाया खाना
बीवी की राह मैं तकता नहीं
होटले तमाम है हर एक शहर में
लोगों के घर मैं रहता नहीं
जो चाहता हूं वो मिल जाता मुझे है
किसी की राह मैं तकता नहीं
किसी की राह मैं तकता नहीं
कोई राह मेरी भी तकता नहीं
कपड़ो की सलवट की तरह रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं
रिश्ता यहाँ कोई कायम रहता नहीं
तत्काल परिणाम की आदत है सबको
माइक्रोवेव में तो रिश्ता पकता नहीं
किसी की राह मैं तकता नहीं
कोई राह मेरी भी तकता नहीं
निष्कर्ष यहीं कि हमें अपनी संस्कृति पर शर्म आती है और दूसरी संस्कृति को अपनाने के लिए वक़्त नहीं है। क्यूंकि माँ-बाप दोनो हाथ से सोना बटोरने में लगे रहते है। अंत में आखिर क्या रह जाएगा जो वो बच्चों के लिए छोड़ जाएगे? क्या बैंक बेलेंस ही सब कुछ है? जबकि हम जानते हैं कि मुद्रास्फ़ीति की वजह से छ: शून्य का बैंक बेलेंस भी काफ़ी नहीं रहेगा अगली पीढ़ी के लिए। एक घर खरीदने में ही खर्च हो जाएगा। और घर में हर वस्तु वैसे ही साल-दो-साल में पुरानी हो जाती है। टी-वी, वी-सी-आर, डी-वी-डी प्लेयर, सी-डी प्लेयर, फ़्रीज, कारपेट, कार, आई-पाड आदि सब बहुत जल्दी पुराने हो जाते हैं। कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की किताबें चार साल बाद ही कचरें में फ़ेंकनी पड़ती हैं।
ये विचार का विषय है कि हम अपनी संस्कृति को कहां ले कर जा रहे हैं? क्या ये शून्य की ओर अग्रसर है? हमारे देश, हमारी संस्कृति ने विश्व को शून्य से अवगत कराया, शून्य का प्रयोग करना सिखाया। लेकिन आज हर क्षेत्र में हम शून्य हैं, नगण्य हैं। जिस पर हम गर्व कर सकते हैं, उस पर हम शर्म करते हैं। आज हर कोई जिम जाता है कसरत के लिए, जबकि घर बैठे योगासन किये जा सकते है। जब पश्चिम के देश इसे अपनाने लगते हैं तो हम भी इसके दीवाने हो जाते हैं। इंदीवर जी ने गीत लिखा था, फ़िल्म पूरब और पश्चिम में -- भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं। दूसरा गीत है राजिंदर कृष्ण द्वारा लिखा, फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म का - जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा। इन दोनों गीतों में जितनी अच्छाईया गिनाई गई हैं - वे सब आज नदारद हैं। (गीत देखे नीचे)
हमारे देश में एक समय नालंदा विश्वविद्यालय था - जो कि विश्वविख्यात था। यहां दूर दूर से लोग शिक्षा पाने आते थे। और ये उस समय जब हवाई जहाज भी नहीं थे। इंटरनेट नहीं था। तगड़ी मार्केटिंग नहीं थी।
हमारे ग्रंथ बताते हैं कि हमारे पास ब्रह्मास्त्र थे। आज हम अपनी सुरक्षा विदेशी ताकतों द्वारा बनाए गए हथियारों से करते हैं। कितनी दयनीय स्थिति हैं। दुश्मन से हम अपनी सुरक्षा के उपाय पूछते है। पंचतंत्र की कहानी याद आ गई कि शेर ने बिल्ली से हर तरकीब सीखनी चाही, लेकिन होशियार बिल्ली ने शेर को पेड़ पर चड़ना नहीं सीखाया। हमारे दुश्मन भी हमें मदद तो करते हैं पर ये ध्यान रखते हैं कि हम उन पर आजीवन निर्भर रहे।
हमारे पास आयुर्वेद थे। मगर हर मरीज़ दौड़ा जा रहा है अस्पताल जहां पश्चिमि चिकित्सा अनुसार इलाज किया जाता है।
नालंदा विश्वविद्यालय आज एक खंडहर है। ब्रह्मास्त्र और पुष्पक विमान काल्पनिक वस्तुए है। इंद्रप्रस्थ नगर विलीन हैं। हमारा दर्शन, हमारा आद्यात्म, हमारी कला, हमारी नीति - ये सब हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग थे। सब धीरे-धीरे विलुप्त हो गए और हो रहे है। कैसे हुआ यह सब? इतना तो मुझे ज्ञात नही। हो सकता है कि उस वक़्त के जनसमुदाय ने भी ऐसे कदम उठाए हो जैसे कि आज हम उठा रहे हैं। वो नालंदा, आयुर्वेद, ब्रह्मास्त्र, दर्शन, आद्यात्म, नीति से दूर होते गए। और हम भी आज इन से और दूर होते जा रहे हैं।
किसी से कहो तो कोई मानता नहीं है। सिर्फ़ एक जवाब - फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।
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जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने
भारत ने मेरे भारत ने
दुनिया को तब गिनती आयी
तारों की भाषा भारत ने
दुनिया को पहले सिखलायी
देता ना दशमलव भारत तो
यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था
धरती और चाँद की दूरी का
अंदाज़ लगाना मुश्किल था
सभ्यता जहाँ पहले आयी
पहले जनमी है जहाँ पे कला
अपना भारत जो भारत है
जिसके पीछे संसार चला
संसार चला और आगे बढ़ा
ज्यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया
भगवान करे ये और बढ़े
बढ़ता ही रहे और फूले-फले
है प्रीत जहाँ की रीत सदा
मैं गीत वहाँ के गाता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ
काले-गोरे का भेद नहीं
हर दिल से हमारा नाता है
कुछ और न आता हो हमको
हमें प्यार निभाना आता है
जिसे मान चुकी सारी दुनिया
मैं बात वोही दोहराता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ
जीते हो किसीने देश तो क्या
हमने तो दिलों को जीता है
जहाँ राम अभी तक है नर में
नारी में अभी तक सीता है
इतने पावन हैं लोग जहाँ
मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ
इतनी ममता नदियों को भी
जहाँ माता कहके बुलाते है
इतना आदर इन्सान तो क्या
पत्थर भी पूजे जातें है
इस धरती पे मैंने जनम लिया
ये सोच के मैं इतराता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ
भारत की बात सुनाता हूँ
Pasted from <http://smriti.com/hindi-songs/jab-ziiro-diyaa-...-hai-priit-jahaan-kii-riit-sadaa-utf8>
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जहाँ डाल-डाल पर
सोने की चिड़ियां करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का
पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा
ये धरती वो जहाँ ऋषि मुनि
जपते प्रभु नाम की माला
जहाँ हर बालक एक मोहन है
और राधा हर एक बाला
जहाँ सूरज सबसे पहले आ कर
डाले अपना फेरा
वो भारत देश है मेरा
अलबेलों की इस धरती के
त्योहार भी है अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग है
कहीं हैं होली के मेले
जहाँ राग रंग और हँसी खुशी का
चारो और है घेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ आसमान से बाते करते
मंदिर और शिवाले
जहाँ किसी नगर मे किसी द्वार पर
कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहाँ बजाता
है ये शाम सवेरा
वो भारत देश है मेरा ...
Pasted from <http://smriti.com/hindi-songs/jahaan-daal-daal-par-sone-kii-chidiyaan-karatii-hain-baseraa-utf8>
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:29 AM
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