Wednesday, June 4, 2008

मेरी कविता

मेरी कविता में बसती है बस मेरी भावना
विनती है कि भावना का लगे भाव ना

सब पढ़ते हैं सुनते हैं पर समझते हैं वो
मात्र मात्रा की गलती पर जो खाते ताव ना

मेरा ही लहू हो और मेरी ही कलम
किसी और का कुछ लगे दाँव ना

जो पहले से हैं वही कुरेदें हैं मैंने
नए सिरे से मैंने किये घाव ना

कलम टेढ़ी न हो तो मैं लिख पाता नहीं
सीधी पतवार से तो माझी खेतें नाव ना

धूप से है जीवन और धूप से है विकास
छालों के डर से मुसाफ़िर मांगे छाँव ना

आज़ादी का मतलब मैं समझ पाया नहीं
लीक से हट कर जब तक रखें पाँव ना

बधाई मिले और ज़माना पूजता रहे
इस तरह की राहुल रखे चाव ना

सिएटल
3 जून 2008

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