ज़िंदगी हो पर प्यार न हो
जैसे जीत हो पर XXXX न हो
जैसे धन हो पर XXXX न हो
जैसे फूल हो पर XXXX न हो
जैसे पालकी हो पर XXXX न हो
जैसे नौकरी हो पर XXXX न हो
जैसे गैस हो पर XXXX न हो
ज़िंदगी हो और ज़ज़बात न हो
जैसे दीप हो और XXXX न हो
जैसे शब्द हो और XXXX न हो
जैसे बाजा हो और XXXX न हो
जैसे अंधेरा हो और XXXX न हो
ज़िंदगी हो और सुख न हो
जैसे एक्ज़ाम हो और XXXX न हो
जैसे टिफिन हो और XXXX न हो
जैसे किचन हो और XXXX न हो
ज़िंदगी हो और कोई संग न हो
जैसे रुप हो पर XXXX न हो
जैसे रूत हो पर XXXX न हो
जैसे होली हो पर XXXX न हो
जैसे लस्सी हो पर XXXX न हो
जैसे रात हो पर XXXX न हो
जैसे गीत हो पर XXXX न हो
सिएटल,
25 जून 2008
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मोटे तौर पर सब की ज़िंदगी एक जैसी ही होती है। लेकिन सब का अपना अपना दृष्टिकोण होता है।
वैसे ही हर कविता एक सी लगती है। लेकिन उन में भी कवि अपनी छाप छोड़ ही देता है। शब्द वही होते हैं, बात भी वही होती है, लेकिन अंदाज़ अलग अलग।
कोई जावेद अक्ख़्तर तो कोई गुलज़ार।
जावेद साहब ने बहुत उम्दा गीत लिखा है - एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे …
वही गीत अगर गुलज़ार साहब लिखते तो कुछ और ही अंदाज़ होता,
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे जलता सिगार
तो आप बेहिचक इस रचना पर अपना हाथ साफ़ करे और इसे अपना जामा पहनाए।
आप अपने शब्दों का योगदान दे कर इस रचना को पूर्ण करे.
1 comments:
ज़िंदगी हो पर प्यार न हो
जैसे जीत हो पर हार न हो
जैसे धन हो पर आहार न हो
जैसे फूल हो पर खार न हो
जैसे पालकी हो पर सवार न हो
जैसे नौकरी हो पर पगार न हो
जैसे गैस हो पर कार न हो
ज़िंदगी हो और ज़ज़बात न हो
जैसे दीप हो और रात न हो
जैसे शब्द हो और बात न हो
जैसे बाजा हो और बरात न हो
जैसे अंधेरा हो और साथ न हो
ज़िंदगी हो और सुख न हो
जैसे एक्ज़ाम हो और बुक न हो
जैसे टिफिन हो और हुक न हो
जैसे किचन हो और कुक न हो
ज़िंदगी हो और कोई संग न हो
जैसे रुप हो पर रंग न हो
जैसे रूत हो पर पतंग न हो
जैसे होली हो पर भंग न हो
जैसे लस्सी हो पर मलंग न हो
जैसे रात हो पर पलंग न हो
जैसे गीत हो पर मृदंग न हो
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