जो दबता है उसी को दुनिया दबाती है बदली भी सूरज नहीं बस चाँद छुपाती है हसरत है उनकी कि मैं तारें तोड़ लाऊँ और उंगलियाँ मेरी बस चाँद छू पाती हैं धरती है कि बेधड़क घूमती ही जा रही है और फूंक-फूंक के दुनिया कदम बढ़ाती है सुना है कि उम्र के साथ आँखें हो जाती है कमज़ोर तो फिर बचपन और बुढ़ापे में क्यों एक सा रूलाती हैं लड़खड़ाता हूँ मैं मुझे नहीं मिलता सहारा मरने वालो को दुनिया कंधों पे उठाती है सोचता हूँ रोज़ अब और हाथ नहीं मैं मैलें करूँगा लेकिन ज़रुरतों की नई-नई फ़सल रोज उग आती है कहने को तो वैसे बहुत कुछ है 'राहुल' लेकिन वो माँ कहाँ जो लोरी सुनाती है सिएटल, 13 जून 2008
Friday, June 13, 2008
जो दबता है उसी को दुनिया दबाती है
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:02 AM
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Labels: CrowdPleaser, TG, Why do I write?
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