Tuesday, June 30, 2020

अड़चनें आईं कई बार हैं

सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें:

अड़चनें आईं कई बार हैं
वीसा पाने में 
सौ सौ बार 
मैंने जवाब दिए

डॉलर अमर है दुनिया में, 
डॉलर कभी नहीं गिरता है
रूपया-पैसा एक तरफ
डॉलर का जलवा रहता है

ओ ईश्वर तू भक्तों का
थोड़ा बेड़ा पार तो कर
मैं भी तेरा अपना हूँ
मेरा केस स्वीकार तो कर

ये मंज़िल मैं राही हूँ
इक दिन इसको पाऊँगा 
कौन मुझे अब रोकेगा
वीसा पा के ही मानूँगा 

(हसरत जयपुरी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 30 जून 2020 । सिएटल 

ऐप पे ऐप चलाते चलो


सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें:

https://tinyurl.com/RahulParodies


ऐप पे ऐप चलाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो
जहाँ से भी पाओ जो कुछ भी कभी
सबको गले से लगाते चलो

जिसका न कोई धंधा-पानी 
उसी ने आग लगाई
जो लोकल है, जो वोकल है, 
उसी ने मुँह की खाई 
ग़रीबों को न गरीब बनाते चलो

आशा टूटी, ममता रूठी 
छूट गया है किनारा
बंद करो मत द्वार योग का 
विश्व कुटुंब है हमारा
दीप योग का जलाते चलो

छाया है चहुँ और अंधेरा 
भटक गई हैं दिशाएँ
मानव बन बैठा है दानव 
किसको व्यथा सुनाएँ
धरती को स्वर्ग बनाते चलो

(भरत व्यास से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 30 जून 2020 । सिएटल

Monday, June 29, 2020

जानवर

इंसान
कभी गाय है
तो कभी शेर

कभी कोल्हू का बैल
तो कभी गधा

कभी घोड़े सा फुर्तीला
तो कभी चींटी की चाल चलता

कभी अजगर सा सोता
तो कभी हाथी सा खाता

कभी दुम हिलाता कुत्ता
तो कभी भीगी बिल्ली 

कभी शरारती बंदर
तो कभी आस्तीन का सांप 

कभी भेड़
तो कभी ख़ूँख़ार भेड़िया 

और
उस दिन तो हद ही हो गई
कोई कहने लगा
मक्खी नहीं 
मधुमक्खी बनो
शहद बनाओ
मिठास लाओ

ये कैसी ज़बरदस्ती है
इंसान को
इंसान क्यों नहीं रहने देते?

और ऊपर से ताना भी
कि ज़्यादा मत बनो!

राहुल उपाध्याय । 29 जून 2020 । सिएटल

Saturday, June 27, 2020

इतवारी पहेली: 2020/06/28

इतवारी पहेली:

कहते हैं जिसका नाम है ###
उसने मेहनत कभी भी ## #

उपरोक्त दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 

जैसे कि:
हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की

ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 5 जुलाई को - उत्तर बता दूँगा। 

राहुल उपाध्याय । 28 जून 2020 । सिएटल
हल: करीना/करी ना

Thursday, June 25, 2020

गाज

दो गज की दूरी
गाज ने कब मानी
होती हो तो हो
किसी की भी हानि

(बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी
तेरी नींद उड़े ते उड़ जाए)

गाज वैसी ही होती है
जैसी ईश्वर की कृपा
सबके लिए बराबर
न अमीर, न ग़रीब
न पूरब, न पश्चिम 
कुछ नहीं देखती
सबके लिए बराबर 

कुछ चपेटें में आ जाते हैं
कुछ बच जाते हैं

क्यों?
क्योंकि 
जहाँ परिवार बढ़ते है
खेत छोटे हो जाते हैं
और मशीनीकरण नहीं हो पाता है

और हाथ ज़्यादा होंगे 
तो ज़ाहिर है मशीनें तो
दरकिनार हो ही जाएगी

मेहनत का फल मीठा होता है?

तो डायबीटीज़ वाले क्या कुछ न करें?


राहुल उपाध्याय । 25 जून 2020 । सिएटल

Wednesday, June 24, 2020

स्वर्गवासी

यूँ तो
उस एक पल में ही
मैं स्वर्ग पहुँच गया था

लेकिन
ज़िन्दा हूँ
तो गिलों-शिकवों के
ज़िन्दाँ
में क़ैद हूँ

जब मिलता हूँ
तो सोचता हूँ
तुमने यह क्यों नहीं पहना
वह क्यों नहीं पहना
तुम तो जानती ही हो
मुझे पीला कितना पसन्द है
और वो दुपट्टा कहाँ गया?

और जब न मिलूँ 
तो लगता है
एक बार बस मिल लो
तो जीना सार्थक हो जाए

जी रहा हूँ
तो
झेल रहा हूँ
ज़ीने के 
उतार-चढ़ाव 
कभी इस मंज़िल 
तो कभी उस मंज़िल 
गुज़ार लेता हूँ
एकाध रात

पहले सोचता था
मंज़िल एक ही होती है
लेकिन जब से छोड़ा गाँव 
आया शहर
हर सहर
एक नई मंज़िल 
का
होता है निर्माण

ता-उम्र रहा इस फ़िराक़ में
कि कहीं हमारा फ़िराक़ न हो जाए
और इसी फ़िक्र में
वस्ल तो हुआ
पर 
उम्र भर का विसाल नहीं

या 
हो सकता है
मेरा दिल
इतना विशाल नहीं
कि 
समा सके इसमें
वह निराकार रक़ीब 
और उसका समा

राहुल उपाध्याय । 24 जून 2020 । सिएटल, अमेरिका

ज़िनदाँ = जेल
ज़ीना = सीड़ियाँ
सहर = सुबह
फ़िराक़ = 1. चिन्ता 2. जुदाई
वस्ल, विसाल = मिलन

Monday, June 22, 2020

यह बात गले नहीं उतरती

देख रहा हूँ
कि तुमने वह सब उतार दिए हैं
जो तुमने मुझसे कभी माँगे थे

हाथ के कंगन
कान की बाली
गले की माला

लेकिन
यह बात गले नहीं उतरती
कि तुम मुझसे उबर चुकी हो

अभी
कल ही की तो बात है
तुम घबरा रही थी 
कि कोई हमें 
देख न ले
सुन न ले
समझ न ले

यह डर
वह नहीं तो क्या है?

दोस्त भी भला कभी डरते हैं किसी से?

राहुल उपाध्याय । 22 जून 2020 । सिएटल

Sunday, June 21, 2020

सपना साकार हो जाए

कितनी अजीब बात है
तुमने भी उसी केरोसेल से
अपना सूटकेस उठाया होगा
जहाँ से मैंने कभी उठाया था
तुम भी उसी इमिग्रेशन की 
क़तार में खड़ी होगी
जिसमें कभी मैं खड़ा था
और यह भी तो हो सकता है 
कि तुम ठीक उसी सीट पर
बैठी हो
जिस पर मैं कभी बैठा था

आज भी मैं
एयरपोर्ट के
कई चक्कर लगाता हूँ
सोचता हूँ 
साथ नहीं हैं
तो क्या 
एक छत के नीचे होने का
सपना तो साकार हो जाए

राहुल उपाध्याय । 21 जून 2020 । सिएटल, अमेरिका

धर्मरक्षक

मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
लेकिन मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी बरकरार हैं

अभी कुछ दिन पहले की बात है
एक मंदिर बनाने के लिए धन इकट्ठा किया जा रहा था
मैंने भी तुरंत डेढ़ सौ डालर का चैक काट कर दे दिया
अरे भई हम अपने धर्म की रक्षा नहीं करेंगे तो कौन करेगा?

और मंदिर में अपने नाम की एक टाईल भी लगवा ली
उसके लिए अलग से 250 डालर दिए
साथ में अपनी पत्नी और बच्चों के भी नाम लिखवा दिए
अरे नाम तो मैं अपने माता-पिता का भी लिखवा देता
लेकिन क्या करूँ 
वे अभी ज़िंदा हैं

******

अब मैं हर रविवार मंदिर जाता हूँ
आरती में
कीर्तन में
हिस्सा लेता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपनी संस्कृति की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे

अपने घर में
पूजा पाठ कहाँ हो पाती है?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब पूजा-पाठ की मुसीबत कौन सर पर ले?
उन्हें नहलाओ-धुलाओ, पोशाक पहनाओ, तिलक लगाओ
दीप जलाओ, अगरबत्ती लगाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और ऊपर से दीपक और अगरबत्ती से कारपेट पर कालिख और बढ़ जाती है
साफ़ ही नहीं होती

मंदिर में पुजारी जी है
जो सब सम्हाल लेते हैं
उन्हें समय से उठाते हैं, सुलाते हैं, खिलाते हैं
हम हफ़्ते में एक दिन जाकर माथा टेक आते हैं
हुंडी में कुछ दान-दक्षिणा डाल आते हैं
वे भी खुश
हम भी खुश

और जैसा कि मैंने आपसे कहा
बावजूद इसके कि
मैं एक इंजीनियर हूँ
और भारत से बाहर रहता हूँ
मुझमें भारतीय संस्कार अभी भी मौजूद हैं

और तो और
मैं अपने माता-पिता को ईश्वर का दर्जा देता हूँ

मैं हर साल भारत जाता हूँ
कभी क्रिसमस की छुट्टी पर
तो कभी गर्मी की छुट्टी पर
उनसे मिल कर आता हूँ
अपने बच्चों को भी साथ ले जाता हूँ
ताकि अपने पूर्वजों की पहचान अगली पीढ़ी में बनी रहे

इस परदेस में
उनकी देख-रेख कहाँ हो पाती?
पहले ही जीवन में भागदौड़ इतनी है
कि अब उनकी मुसीबत कौन सर पर ले?
उनके साथ बात करो, उन्हें डाक्टर के पास ले जाओ, उनके लिए अलग भोजन बनाओ
ऊफ़! कितनी आफ़त है
और उपर से रोज़-रोज़ साड़ी, धोती वाशिंग मशीन में कहाँ धुल पाती हैं
और बाथटब में धोओ तो रंग अलग से निकलता है
बाथरूम इतने गंदे हो जाते हैं
कि साफ़ ही नहीं होते

भारत में एक आया है
जो सब सम्हाल लेती है
उन्हें समय से खिलाती है, पिलाती है, दवाई देती है, मालिश करती है
हम साल में एक बार जाकर उनसे आशीर्वाद ले आते हैं
आया को उपहार दे आते हैं
वह भी खुश
हम भी खुश

राहुल उपाध्याय । 23 अगस्त 2009 । सिएटल 

Saturday, June 20, 2020

सूतक

जेब में आई-फ़ोन है
व्हाट्सैप चलाते हैं 
ऑनलाइन कविताएँ सुनाते हैं
लेकिन ग्रहण है 
सो सूतक में विश्वास है
और पूर्व-निर्धारित गोष्ठी 
रद्द हो जाती है

बसें बन्द नहीं होतीं
ट्रैन चलती हैं
दुकानें खुलती हैं
पर आरामपसन्द आदमी
अकारण ही
कारण ढूँढ लेता है
कुछ न करने की

आज 
बुद्ध पूर्णिमा है
कल
किसी का जन्मदिन है
कभी कोई तीज है
कभी चतुर्थी 

चाहे कितना ही 
विकास हो जाए
हम नए-नए
पुख़्ता 
'वैज्ञानिक'
एवं 
तर्कसंगत 
कारण
खोज ही लेते हैं
पीछे
और पीछे
होने के लिए

राहुल उपाध्याय । 20 जून 2020 । सिएटल

लोग ज़ालिम होते तो

लोग ज़ालिम होते तो
बातों-बातों में मेरा ज़िक्र भी ले आते

लेकिन लोग इतने सभ्य हैं कि
सब कुछ जानते हुए भी
अनजान बनते हैं
बेवजह उदासी का सबब
नहीं पूछते हैं
ये भी नहीं पूछते हैं कि
तुम इतने परेशां क्यूँ हो?
जगमगाते हुए लम्हों से
गुरेज़ाँ क्यूँ हो?
उँगलियाँ नहीं उठाते हैं
सूखे हुए बालों की तरफ़ 
एक नज़र नहीं डालते हैं
गुज़रे हुए सालों की तरफ़ 
काँपते होंठ
नज़रअंदाज़ कर दिए जाते हैं
पनीली आँखें देख
हाथ पर हाथ धरे
बैठे रहते हैं

वे थोड़े भी
असभ्य होते तो
कुछ तो असर होता

बात निकलती तो 
दूर तलक जाती

(कफ़ील आज़र अमरोहवी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 20 जून 2020 । सिएटल
——-
गुरेज़ाँ = भाग जाना

Thursday, June 18, 2020

सूरज


जब चला था पूरब से पश्चिम की ओर 
न जाने किस के हाथ थी पतंग की डोर 
कि बीत जाने के बाद चौतीस साल 
आज मेरा अपना यहाँ कुछ भी नहीं
सूरज भी है तो किसी का इस्तेमाल किया हुआ
हवा भी है तो उसमें है छुपी बीमारी कहीं 
भूमि भी है पर उससे मिटती भूख नहीं 
साँसें भी हैं पर उनमें आग नहीं 
इन्सान तो हूँ पर इन सा नहीं 
रोबोट होता तो विवेक भी होता 
चाहे वो कृत्रिम ही होता
किसी आंदोलन से न विचलित होता
और इस पर न कोई विचलित होता

राहुल उपाध्याय । 18 जून 2020 । सिएटल

जान लेते हैं जान जाने के बाद

जान लेते हैं जान जाने के बाद 
किस मर्ज़ ने मारा बीमार को 

हम अपने गिरेबान में क्यों झाँके 
जब संसार दे रहा है दोष संसार को 

युद्ध में सिविलियन बख़्श ही दिए जाते हैं 
फिर क्यों हम हवा दे रहें हैं बहिष्कार को 

हम सा जागरूक और कोई क्या होगा
हर मुद्दे पर करते रहते हैं तेज़ धार को 

रोज़-रोज़ तो चिंतन हमसे होता नहीं 
सो तान लेते हैं चादर शनिवार-इतवार को 

आप भी अपना कोई शग़ल ढूँढ लीजिए 
वरना सहते रहेंगे हम जैसे कलाकार को 

राहुल उपाध्याय । 18 जून 2020 । सिएटल 

Monday, June 15, 2020

चिता की गर्म आँच से

जग जाता है जग
चिता की गर्म आँच से
देह का कोई असर नहीं 
चाहे भरी हो गर्म साँस से

आँसू पूछते थे उसे
पोंछने वाले किधर गए?
क्या कहता वो उनसे
जो रूके नहीं और निकल गए?

हर तरफ़ है शुभचिन्तक 
हर तरफ़ उमड़ रहा प्यार है
ज़िन्दगी से जो हार गया
हार पा रहा उपहार है

यही हमारी रीत है
यही हमारा रिवाज है
जीते जी जो पसन्द नहीं
मरने पर रोते दहाड़ मार है

आओ रहें हम शांत क्यूँ
हम भी स्टेटस लगाएँगे
दो-चार दिन की बात है
फिर कुत्ते-बिल्ली लगाएँगे 

राहुल उपाध्याय । 15 जून 2020 । सिएटल

Stalled Marriage

रिलेशनशिप्स एक ख़तरनाक स्ट्रीट है
जो कल तक प्रिय था आज बना कलप्रिट है

परफ़्यूम्स की गिफ़्ट 
ईयर-रिंग्स की गिफ़्ट 
केबल के रिमोट में 
हो गई हैं शिफ़्ट 
कड़वे घूंट ही अब बर्थडे की ट्रीट हैं

कभी नखरे उठाते थे
कभी पाँव दबाते थे
कभी-कभी रुठ जाने पर
दर्जन फ्लॉवर्स लाते थे
आज बात-बात पर किए जाते मिसट्रीट हैं

रफ़्ता-रफ़्ता रिसते-रिसते
रिश्ता बन जाता है बोझ
तू-तू मैं-मैं होती है रोज
झगड़े आदि होते हैं रोज
दोनों में से कोई भी करता नहीं रिट्रीट है

पहले करते थे 'विश'
आज घोलते है विष
साथ-साथ रहते हैं पर
जैसे एक्वेरियम में फ़िश 
जिसकी वॉल्स में ग्लास नहीं कंक्रीट है

लिये थे फेरे
खाई थी कसमें
किये थे वादे
निभाएंगे रस्में
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ लापता मेराईटल स्पिरिट है

राहुल उपाध्याय । 11 जुलाई 2007 । सिएटल

Sunday, June 14, 2020

आत्महत्या एक जुर्म है

कितने नादां है लोग
जो आत्महत्या को घिनौना क़रार देते हैं
आत्महत्या एक जुर्म है
कि आड़ में
न जाने क्या-क्या कह जाते हैं

इन्हें 
सहानुभूति क्या होती है
नहीं मालूम

क्या करे कोई इन्सान 
जब हर कोई भाषण
देने को तैयार हो

इतने दुखी क्यों हो?
कौन सा क़हर आ पड़ा है?
मुझे देखो
मैंने कैसे संघर्षों का सामना किया
सर उठा कर जी रहा हूँ
तलाक़ हो गया?
तो किसका नहीं होता है?
शीला को देखो
श्याम को देखो
सब मस्ती से जी रहे हैं
शादी नहीं हो रही?
कितने कुँवारे कितने बड़े-बड़े काम कर रहे हैं
फ़ेल हो गए?
ये लो, अरे मैं खुद नवीं में फ़ेल हुआ हूँ
ऐसी कौन सी बड़ी बात हो गई?
देखो आज मैं कितना ख़ुश हूँ
बंधु! गीता में लिखा है
कर्म किए जा 
फल की इच्छा मत रख
थोड़ा जज़्बा रख
यह क्या कायर और बुज़दिल बना घूम रहा है
मर्द बन
रीढ़ की हड्डी दिखा

कितने नादां हैं लोग
यह भी नहीं जानते 
कि वे मदद नहीं 
एक धक्का और दे रहे हैं
कगार से कूदने पर
विवश होने के लिए

राहुल उपाध्याय । 14 जून 2020 । सिएटल

Thursday, June 11, 2020

चढ़ा है तो आसानी से उतरेगा नहीं

इतिहास साक्षी है कि
जब भी हमने कुछ धारा है
उसे उतारने में हम अक्षम रहे हैं

चाहे वो
जूते-चप्पल हों
शर्ट हो
पेंट हो
चश्मा हो
या अँगूठी हो

अब 
ढाई अंगुल के मास्क के भी
दिन आ गए हैं
चढ़ा है
तो आसानी से उतरेगा नहीं 

जिस गाँव में बिजली के अभाव में 
लोग ज़िन्दगी गुज़ार देते थे 
बिना पंखे के
आज
बिना कूलर के
लोगों को नींद नहीं आती है
बिना बाईक 
अपंग
बिना फ़ोन
गँवार 
बिना व्हाट्सेप
अकेले
बिना फ़ेसबुक 
बेजान

अब
जेब में रूमाल के साथ
हेण्ड सेनिटाईज़र भी
अनिवार्य हो जाएगा

कहाँ तो रोटी-कपड़ा-मकान जुटाने में
कमर टूट जाती थी
अब
शैम्पू 
डीओडोरेंट
इंटरनेट 
सब अति आवश्यक है

हम भूल जाते हैं कि
निर्भरता ही नैनों में है नीर भरती
और हम उन्हें समृद्धि का मापदण्ड मान बैठते हैं

सही मायनों में देखिए तो है बस वो ही आज़ाद
जो किसी बात पर भी किसी का नहीं मोहताज 

राहुल उपाध्याय । 11 जून 2020 । सिएटल

Wednesday, June 10, 2020

महज़ बातों ही से क्या मन की बात होती है


सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें:

https://Tinyurl.com/RahulPoemsV


महज़ बातों ही से क्या मन की बात होती है
हवा न दो तो जवाँ आग राख होती है

आज भी याद है वो, वो रात फूलों की
दिखा जो चाँद कभी ख़ुशबू साथ होती है

तराने जो भी सुने, नग़मे जो भी चुने
उन्हें गाने की तबियत हज़ार होती है

तू ख़ुश रहे, तू सदा होके आबाद रहे
इन्हीं दुआओं के संग सुबह-शाम होती है

वफ़ाएँ छोड़ भी दीं, जफ़ाएँ ओढ़ भी लीं
रूह तो रूह ही है, किसकी जान होती है

राहुल उपाध्याय | 25 मार्च 2018 । सिएटल