Wednesday, June 24, 2020

स्वर्गवासी

यूँ तो
उस एक पल में ही
मैं स्वर्ग पहुँच गया था

लेकिन
ज़िन्दा हूँ
तो गिलों-शिकवों के
ज़िन्दाँ
में क़ैद हूँ

जब मिलता हूँ
तो सोचता हूँ
तुमने यह क्यों नहीं पहना
वह क्यों नहीं पहना
तुम तो जानती ही हो
मुझे पीला कितना पसन्द है
और वो दुपट्टा कहाँ गया?

और जब न मिलूँ 
तो लगता है
एक बार बस मिल लो
तो जीना सार्थक हो जाए

जी रहा हूँ
तो
झेल रहा हूँ
ज़ीने के 
उतार-चढ़ाव 
कभी इस मंज़िल 
तो कभी उस मंज़िल 
गुज़ार लेता हूँ
एकाध रात

पहले सोचता था
मंज़िल एक ही होती है
लेकिन जब से छोड़ा गाँव 
आया शहर
हर सहर
एक नई मंज़िल 
का
होता है निर्माण

ता-उम्र रहा इस फ़िराक़ में
कि कहीं हमारा फ़िराक़ न हो जाए
और इसी फ़िक्र में
वस्ल तो हुआ
पर 
उम्र भर का विसाल नहीं

या 
हो सकता है
मेरा दिल
इतना विशाल नहीं
कि 
समा सके इसमें
वह निराकार रक़ीब 
और उसका समा

राहुल उपाध्याय । 24 जून 2020 । सिएटल, अमेरिका

ज़िनदाँ = जेल
ज़ीना = सीड़ियाँ
सहर = सुबह
फ़िराक़ = 1. चिन्ता 2. जुदाई
वस्ल, विसाल = मिलन

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