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ऐप पे ऐप चलाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो
जहाँ से भी पाओ जो कुछ भी कभी
सबको गले से लगाते चलो
जिसका न कोई धंधा-पानी
उसी ने आग लगाई
जो लोकल है, जो वोकल है,
उसी ने मुँह की खाई
ग़रीबों को न गरीब बनाते चलो
आशा टूटी, ममता रूठी
छूट गया है किनारा
बंद करो मत द्वार योग का
विश्व कुटुंब है हमारा
दीप योग का जलाते चलो
छाया है चहुँ और अंधेरा
भटक गई हैं दिशाएँ
मानव बन बैठा है दानव
किसको व्यथा सुनाएँ
धरती को स्वर्ग बनाते चलो
(भरत व्यास से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 30 जून 2020 । सिएटल
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