टूटता न शाख़ से
जूझता न ख़ाक से
जलता न आग पे
होता ना पाक मैं
मंजर होते दिलकश
क़दम रुक जाते कहीं
न हाथ होते काम के
न पल होते ख़ास ये
घनी छाँव, कड़ी धूप
सबका एक स्थान है
छालों ने दिया दुख
तो बढ़ाई भी रफ़्तार ये
घाव भी हैं, ग़म भी हैं
बिछड़ गए बाल हैं
जिस्म है फ़ौलाद नहीं
सबकी एक याद है
पाया किसी का प्यार भी
तो खोया किसी का साथ भी
गिला-शिकवा किसी से नहीं
सब का इस्तिक़बाल है
जब तक यह जीव है
साँसों का भंडार है
साँसों में पल रहा
रोज़ नया संसार है
राहुल उपाध्याय । 19 नवंबर 2020 । सिएटल
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