काहे को रोए
जीते जो जीते
सफ़ल हुई
वोटर की कामना
मूँछें तेरी काहे नादान
लटक गई डाल समान
समा जाये इस में तूफ़ान
कर तेरा जिगर आसमान
जाने क्यों तूने ये
झूठे सपन संजोए
पद छूटे तो ये बाक़ी
जीवन और सुंदर बने
पढ़े-लिखे, बाँटे जो भी
ज्ञान तू बाँट सके
काहे को बोझा ये
सर पे तू ढोए
कहीं पे है दुख की छाया
कहीं पे है ख़ुशियों की धूप
बुरा भला जैसा भी है
यही तो है बगिया का रूप
फूलों से, कांटों से
माली ने हार पिरोए
(आनन्द बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 7 नवम्बर 2020 । सिएटल
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सुन्दर
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