मैंने अपनी मम्मी के बारे में कई बार लिखा है। जितना भी लिखूँ कम ही लगता है।
उनमें ज़रूर कुछ अवगुण भी होंगे। लेकिन मुझे सिर्फ़ गुण ही दिखे।
वे कोई महान हस्ती नहीं थीं। अति साधारण। जैसी आम औरतें होती थीं उस समाज की जहाँ वे पैदा और बड़ी हुईं।
1966 में 27 वर्ष की कम उम्र में एक घटना हुई जो सुखद भी थी और दुखद भी।
बाऊजी लंदन जा रहे थे एल-एल-एम करने। उन दिनों रतलाम से इंदौर जाना भी एक बहुत बढ़ी बात होती थी। लंदन तो मानो जीते जी स्वर्ग जाने जैसा था।
लेकिन दुख की बात यह कि वे अकेले गए। मम्मी को अकेला छोड़ गए। हम दोनों भाईयों की देख भाल मम्मी के सर
पर आन पड़ी।
मामासाब, मामीसाब और बाई-दासाब (नानी-नाना) का सहारा न मिलता तो न जाने हमारा क्या होता। सिर्फ़ सहारा ही नहीं, इतना प्यार, इतना प्यार मिला कि मुझे कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई। बल्कि मैं तो कहूँगा कि मेरे जीवन के वे सबसे अच्छे दिन थे।
बाऊजी के लौटने के बाद हम मेरठ, जम्मू, शिमला और कलकत्ता में रहे। बड़े शहरों में संयुक्त परिवार से दूर के जीवन में ख़ुद को ढालना आसान नहीं है। यह काम मम्मी ने बखूबी किया।
मेरठ में सूप बनाना सीखा। शिमला में जाम। केक भी बनाए। डाइनिंग टेबल सेट की। बड़े मेहमानों का स्वागत किया। राजभवन, दूतावासों के कार्यक्रमों में शामिल हुईं। बहुत सारी यात्राएँ कीं। भारत के लगभग सारे तीर्थस्थलों के दर्शन किए।
कभी महसूस नहीं होने दिया कि वे चौथी तक ही पढ़ी हैं। अंग्रेज़ी कभी नहीं सीखी स्कूल में। धीरे-धीरे अक्षर ज्ञान हो गया और डाक पर लिखे नाम पहचान लेती थीं। टीवी पर भी अंग्रेज़ी में लिखे नाम बहुत जल्दी पढ़ लेती थीं।
मुझे कभी किसी भी बात के लिए डाँटा नहीं। कोई सलाह नहीं दी। कोई ज्ञान नहीं बाँटा।
जब मैं छोटा था तब शिवगढ़ में उन्होंने अभाव का जीवन जिया। वे मुझे बताती थी कि कैसे बिजली न होने की वजह से घट्टी चलाकर गेंहू पीसती थी। बावड़ी से पीतल के घड़ों में पानी लाती थीं।
तब से यह सपना था कि मैं उन्हें जितना सुख दे सकता हूँ, दूँ।
अपनी ज़िंदगी के आख़री दो साल मेरे साथ बिता कर उन्होंने मेरा यह सपना पूरा किया।
राहुल उपाध्याय । 2 नवम्बर 2022 । सिएटल
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