Saturday, November 5, 2022

तुम अच्छी हो

तुम अच्छी हो

यह देखकर अच्छा लगा 

तुम अच्छी लग भी रही थी

लेकिन थाउज़ेण्ड वॉट वाले 

बल्ब सी नहीं, कुछ बुझ सी गई हो


तुम्हारे कपड़े हमेशा 

सजीले, रंगीले, लुभावने रहे है

कल भी थे, लेकिन उनमें वो ललक, 

वो लहर, वो लचक नहीं थी 


तुम्हारी हँसी हमेशा हसीं रही है 

दांत भी मोती से चमक रहे थे

लेकिन हँसी अब हसीं नहीं 


लगता है 

जो कुछ भी मैंने दिया

वह सब तुम खो चुकी हो

या कहीं रख कर भूल गई हो

या सम्हाल के रखा है ताकि एक दिन

जब हम एक हों काम आ सके


तुम मिली

अच्छा लगा

मिलती रहना

सम्भावनाएँ बनी रहती हैं 


तुम बैंगन भी लाई

जो मुझे बेहद पसंद हैं

तुमने मुझे अपनी प्लेट से 

एक चम्मच गाजर का हलवा

खाने भी दिया, 'ताल' याद आ गई 


'परदेस' भी


किसी रोज़ तुम से मुलाकात होगी

मेरी जान उस दिन मेरे साथ होगी

मगर कब ना जाने ये बरसात होगी

मेरा दिल है प्यासा मेरा दिल अकेला


राहुल उपाध्याय । 5 नवम्बर 2022 । सिएटल 





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3 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०७-११-२०२२ ) को 'नई- नई अनुभूतियों का उन्मेष हो रहा है'(चर्चा अंक-४६०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Alaknanda Singh said...

जो कुछ भी मैंने दिया

वह सब तुम खो चुकी हो

या कहीं रख कर भूल गई हो

या सम्हाल के रखा है ताकि एक दिन

जब हम एक हों काम आ सके...शानदार रचना राहुल जी