दृश्यम 2 देखने के लिए दृश्यम देखना आवश्यक है। यह उन सिक्वल्स में से नहीं है कि पिछली कड़ी देखे बिना काम चल जाएगा। हालाँकि जैसा कि हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर होता है, यहाँ भी अब तक की कहानी को समझाने का भरसक प्रयास किया जाता है। लेकिन बात नहीं बनती। पहली फ़िल्म देखने का फ़ायदा यह होगा कि एक अच्छी फ़िल्म दोबारा देखी जाएगी।
इस फिल्म में उतनी कसावट नहीं है जितनी पहली में थी। सात साल के अंतराल को अच्छा दिखाया गया है। मुख्य पात्र विजय का कारोबार बढ़ जाता है। उसके पास अब स्मार्टफ़ोन है। लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि विजय की पत्नी और उसकी दोनों बेटियों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं है। बड़ी बेटी शायद अब ग्रेजुएट हो गई होगी। कोई काम भी करती होगी। घर से बाहर भी जाती होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं। इस बार विजय के ससुराल वाले भी नज़र नहीं आते।
पूरी फ़िल्म समीर के शव को खोजने पर टिकी है। इसलिए यह फिल्म उतनी सशक्त नहीं है जितनी पहले थी। क्योंकि पुलिस के पास पर्याप्त जानकारी है कि खून किसने किया है, इसके बावजूद वे बिना लाश के ख़ुद को हारा हुआ मान लेते हैं यह बात गले नहीं उतरती।
श्रिया सरण का अभिनय अत्यंत उम्दा है। हर तरह से वे परेशान और हतप्रभ लगती हैं।
सौरभ शुक्ला का किरदार प्रभावित नहीं करता। मार्टिन की दुकान सात साल में बिलकुल नहीं बदली।
फ़िल्म देखी जा सकती है लेकिन कहानी बहुत पेचीदा है और दर्शक शायद उतना दिमाग लगा कर समझने की कोशिश करने के लिए तैयार न हो।
राहुल उपाध्याय । 19 नवम्बर 2022 । सिएटल
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