गणेश चतुर थी!
गणेश चतुर थी!
सुन-सुन के
कान पक गए. अरे भई, कोई तो हो जो सही हिंदी बोले. मैं यह नहीं कह रहा कि शुद्ध
हिंदी बोले - पर कम से कम सही हिंदी तो बोले. आजकल कोई भी सही हिंदी नहीं बोलता.
बम्बई/मुम्बईवालों से तो उम्मीद ही छोड़ दी है.
मेरे को अभी काम पे जाना है. अपुन के पास खाली-पीली बोम
मारने वास्ते टाईम नहीं है. उधर चमन भाई का भाई खल्लास हो गएला है तो अभीच जाना
मांगता है.
लेकिन ये सारे
हिंदुस्तान को क्या हो गया? क्या चेन्नई एक्स्प्रेस की हवा लग गई है जो सब के सब
मीनम्मा जैसी बातें करने लगे हैं? मेरा बाप मेरे
को डराती. इन गुण्डों को पीचे लगाती. चलो हम गर से बाग जाए.
जबकि सच पूछिए तो हमारी हिंदी फ़िल्मों की वजह से ही हिंदी आज फल-फूल रही
है. यही तो एक मात्र मनोरंजन का साधन है. (वरना रोजी-रोटी के चक्कर में अंग्रेज़ी
कब की हिंदी को खा गई होती.) चाहे एन-आर-आई हो या विशुद्ध देसी. बिना हिंदी फ़िल्म के किसी को खाना नहीं
पचता. ये अलग बात है कि हिंदी फ़िल्मों के कर्णधारों का देवनागरी से दूर-दूर का
वास्ता नहीं है. आजकल के स्टार-पुत्र-पुत्रियाँ तो रोमन से काम चलाते हैं ही, यहाँ तक कि हिंदी-प्रेमियों के चहेते गुलज़ार और
जावेद अख़्तर साहब तक देवनागरी का क-ख-ग नहीं लिख पाते हैं. उर्दू के अलिफ़-बे-पे से
काम चलाते आ रहे हैं और चलाते रहेंगे. और विडम्बना देखिए कि गुलज़ार साहब को हमने विश्व-हिंदी सम्मेलन का
अध्यक्ष बना दिया था. वाह री हिंदी. बढ़ी उदार-दिल है, क्या करें!
लेकिन ये लम्बोदर के साथ मसखरी कुछ समझ नहीं आई. गणेश जी चतुर थे, यह कहना चाहिए. न कि गणेश चतुर थी. मुझे तो कोई एसा प्रसंग याद नहीं आता
जब कि गणेश जी ने नारी रूप धारण किया हो या अपने पिताजी जैसा अर्धनारीश्वर जैसा
कोई रूप भी रचा हो. तो फिर ये गणेश हैं कौन? कोई
अभिनेत्री? कोई नेत्री? कोई सेलेब्रेटी? किसी महिला का नाम आज तक गणेश न सुना है न
पढ़ा है. कोई गणेश कुमारी, कोई गणेश देवी, कोई गणेश कौर कहीं नहीं देखी. गुगल-बिंग
सब छान मारा. फ़ेसबुक-ट्वीटर भी देख लिया.
गणेश जी हमेशा से शिव-पार्वती के सुपुत्र माने जाते रहे हैं और इस बात में
भी कतई संदेह नहीं है कि वे चतुर थे. एक बार भगवान शिव ने
अपने पुत्रों - गणेश जी एवं कार्तिक - से कहा कि जो सबसे पहले ब्रह्माण्ड की
परिक्रमा लगा कर आएगा उसे पुरुस्कार दिया जाएगा. गणेश जी ने सोचा मेरे पिता ही
मेरा ब्रह्माण्ड है सो उन्होंने झटपट भगवान शिव की परिक्रमा लगाई और बाजी जीत गए.
तब एक महानुभाव मिले. कहने लगे - "मसखरी तो मियां
तुम कर रहे हो. थोड़ी देर बैठकर जो कह रहा है उससे लिखवा कर देखो, जब आप पढ़ोगे तो
खुद ही समझ जाओगे कि माजरा क्या है."
हमने कहा तो भाई साहब आप ही लिख दीजिए. पढ़कर तो मेरे हाथों के तोते उड़ गए.
अरे हिंदी में भी ऐसा होता है. कि पढ़ो कुछ और बोलो कुछ. या लिखो
कुछ और पढ़ो कुछ? या बोलो कुछ और पढ़ो कुछ? मैं तो सोचता था कि ये समस्या अंग्रेज़ी
वालो की है. देवनागरी में तो ऐसा कोई लफ़ड़ा नहीं है. रोमन में आप हर्श लिखे तो कोई उसे हर्ष भी पढ़ सकता है तो कोई अंग्रेज़ी का शब्द harsh भी. minute को भी दो तरीके से पढ़ा जा सकता है मिनट और
माईन्यूट. लेकिन ये दुविधा हिंदी में पहली बार सामने आई है.
फिर मेरे छोटे बेटे ने मुझे बताया कि जी नहीं, एक बार नहीं कई बार ये
समस्या आई है उसके सामने. वो हर रविवार को गुरुकुल जाता है हिंदी सीखने-लिखने-पढ़ने
के लिए. जब भी मैडम डिक्टेशन करवाती है बड़ी समस्या होती है. कहती है रीतु लिखो -
अब वो क्या लिखे? रीतू या ऋतु? क्योंकि बोलने/सुनने में तो दोनों में कोई फ़र्क नहीं है. सोमवार या सोम्वार? मंगलवार या
मंगल्वार? जनवरी या जन्वरी? चलचित्र या चल्चित्र? कोलकाता या कोल्काता? चमचा या
चम्चा? रसगुल्ला या रस्गुल्ला? धरमेन्द्र या धर्मेन्द्र? मूलचंद या मूलचंद या मुल्चंद या मुलचंद? सल्मान या
सलमान? धर्ती या धरती?
उपर से लिंग की बड़ी समस्या है. मैंने कहा, "बेटा, एक ही विषय पर टिक. अभी बात गणेश जी की चल
रही है और तू शिवलिंग को बीच में ला रहा है." उसने कहा - "शिवलिंग नहीं पापा, मैं बात कर रहा हूँ जेंडर की. लिंग
भेद की. पुलिंग-स्त्रीलिंग की. अब आप
बताईए कि केक कटती है कि कटता है? फ़्रिज खुला है कि फ़्रिज खुली है? जब अलमारी खुल
सकती है तो फ़्रिज क्यों नहीं खुल सकता? और दही बन गया या दही बन गई? जब आईस-क्रीम
गिर सकती है तो बिस्किट क्यों नहीं गिर सकती? रचना पढ़ी या रचना पढ़ा? मेहनत बच गई या मेहनत बच गया?"
मैंने कहा, "बेटा, बात तो
पते की कर रहे हो. मैं पता लगाने की कोशिश करता हूँ कि लिंग तय करने का कोई नियम
भी है या नहीं."
जाते-जाते
बेटे ने एक और सवाल कर डाला. "पापा, ये कैसा त्योहार है - जिसमें सब लोग कहते
है - नाग पंच मी - यानी आ नाग मुझे मार?"
1 comments:
लेख अच्छा लगा!
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