Friday, August 28, 2015

निभ

पहले घड़ी और राखी में लड़ाई होती थी
क्योंकि दोनों वहाँ बंधती थी, जहाँ कलाई होती थी

अब घड़ी है फोन में
और राखी ... आती है फोन पे
जिसे दो घड़ी देखने के बाद ही
अंगूठे से सरका देते हैं हम
एक बटन दबाते ही हो जाती है अदृश्य
और कहीं स्टोरेज न भर जाए
इस डर से हो जाती है डिलिट
हाथों-हाथ 

निभ रही है राखी जैसे निभते हैं बँधन
न अक्षत, न रोली, न हल्दी, न कुंकुम
सूना है माथा, सूनी है कलाई
न उपहार है देने को, न है मुँह में मिठाई

राखी है क्या कोई बचपन का खेल?
कि बड़े हुए तो सूख गई भावनाओं की बेल?

शादी हो गई तो बस पति की चाकरी ?
और उसकी सुरक्षा हेतु करवा-चौथ?
भाई को गुड-बाई कहो, पति को गुड-बॉय?
सासू-माँ के पाँव मलो, करो मैरीड-लाईफ़ इंजॉय?

निभ रही है राखी जैसे निभते हैं बँधन

न जेवर हैं, न घेवर हैं
उखड़े-उखड़े से तेवर हैं

कल को जब होंगे बच्चे
शायद वो हो हमसे अच्छे

वरना इतिहास फिर दोहराया जाएगा
संस्कृति को हरा कर जाएगा

28 अगस्त 2015
सिएटल । 425-445-0827

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