साल दर साल
मन में उठता है सवाल
शुभकामनाओं की मियाद
क्यूं होती है बस एक साल?
चलो इसी बहाने
पूछते तो हो
एक दूसरे का हाल
साल दर साल
जब जब आता नया साल
सेन फ़्रांसिस्को
30 दिसम्बर 2004
साल दर साल
मन में उठता है सवाल
शुभकामनाओं की मियाद
क्यूं होती है बस एक साल?
चलो इसी बहाने
पूछते तो हो
एक दूसरे का हाल
साल दर साल
जब जब आता नया साल
सेन फ़्रांसिस्को
30 दिसम्बर 2004
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:51 PM
आपका क्या कहना है??
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पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की
क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की
जो सावन की बदली लाती थी
अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है
और बेमौसम बरसात होती रोज है
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
बारिश की बूंदे जो कभी थी घुंघरु की छनछन
दफ़्तर जाते वक्त आज कोसी जाती हैं क्षण क्षण
पानी से भरे गड्ढे थे झिलमिलाते दर्पण
आज नज़र आते है बस उछालते कीचड़
जिन्होने सींचा था बचपन
आज वही लगते हैं अड़चन
रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर
दोनो के बीच हुआ बचपन रिटायर
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम
कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम
तरह तरह के कैलेंडर्स से सजती थी दीवारें
अब तो गायब हो गए हैं ग्रीटिंग कार्ड भी सारे
या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें
या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स हैं मारे
दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर
सिमट कर रह गए संदेश हमारे
जिनसे मिलती थी अपनों की खुशबू
आज है बस रिसाइक्लिंग की वस्तु
बदली नहीं बदली
ज़िंदगी है बदली
पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की ...
सिएटल,
31 दिसम्बर 2007
==============
डायरी = diary
वाईपर =wiper
टायर = tire
रिटायर = retire
कैलेंडर्स = calendars
ग्रीटिंग कार्ड = greeting card
टेक्नोलॉजी = technology
इमोशन्स = emotions
फ़्रीज = fridge
स्क्रीन्स =screens
रिसाइक्लिंग = recycling
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:16 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: digital age
छुट्टीयों का मौसम है
त्योहार की तैयारी है
रोशन हैं इमारतें
जैसे जन्नत पधारी है
कड़ाके की ठंड है
और बादल भी भारी है
बावजूद इसके लोगो में जोश है
और बच्चे मार रहे किलकारी हैं
यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी
लग रही सबको प्यारी हैं
दे रहे हैं वो भी दान
जो धन के पुजारी हैं
खुश हैं खरीदार
और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों
जबकि दोनों ही उधारी हैं
भूल गई यीशु का जन्म
ये दुनिया संसारी है
भाग रही उसके पीछे
जिसे हो हो हो की बीमारी है
लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी
क्या शान से संवारी है
मिलता है वो माँल में
पक्का बाज़ारी है
बच्चे हैं उसके दीवाने
जैसे जादू की पिटारी है
झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे
जैसे झूमता मदारी है
राहुल उपाध्याय | दिसम्बर 2003 | सेन फ़्रांसिस्को
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:17 AM
आपका क्या कहना है??
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पिछले तीन दिनों से
श्वेत हिम-कण
मेरे घर पर पहरे दे रहे हैं
न किसी को आने देते हैं
न मुझे ही बाहर पाँव धरने दे रहे हैं
बड़े आए लिखने वाले
रोती-धोती अबला के मर्म पर
हम से बड़ा है मर्द कौन
देख इधर और कुछ शर्म कर
बार-बार हिम-कण
मुझे उलाहने दे रहे हैं
खिलती है धूप मगर
ये हैं कि मिटते ही नहीं
चलती है हवा मगर
ये हैं कि हटते ही नहीं
इनके आगे बड़े-बड़े
टेक घुटने दे रहे हैं
बड़ा भारी हो महल कोई
या घर हो कोई छोटा-मोटा
चमचाती हो मर्सडीज़
या धूल खाती हो टोयोटा
रुप-रंग के भेद सारे
सफ़ेद चादर में दबने दे रहे हैं
रंग रहित थे सारे पेड़
और निर्वस्त्र सी थी सारी डालियाँ
हीरे-मोती की उन पर
अब चमकती हैं झूमर-बालियाँ
फ़्री-फ़ोकट में दुनिया को ये
सुंदर-सुंदर गहने दे रहे हैं
ये आए हैं कहाँ से
और कहाँ इन्हें जाना है
भली-भाँति तरह से
भला किस ने जाना है
बन गया है कोई दार्शनिक
तो किसी को वैज्ञानिक बनने दे रहे हैं
सिएटल,
22 दिसम्बर 2008
=============
मर्म = http://mere--words.blogspot.com/2008/11/blog-post_23.html
मर्सडीज़ = Mercedes
टोयोटा = Toyota
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:22 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: nature
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:39 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: new, news, parodies, Raja Mehadi Ali Khan, TG
सांड है छुट्टी पर
और भालू का बाज़ार है
जब चिड़िया चुग गई खेत
कर रहे बेल-आउट का इंतज़ार है
धनाड्यों की दुनिया में
छाया अंधकार है
दिन में तारें दिखते हैं
हुआ बंटाधार है
अच्छे खासे सेठों का
ठप्प हुआ व्यापार है
स्टॉक्स के जुआरी लोग
कर रहे हाहाकार है
माना कि सारे जीव-जंतुओं में
मनुष्य सबसे होशियार है
आंधी आए, तूफ़ां आए
लड़ने को रहता तैयार है
सर्दी-गर्मी से निपटने को
किए हज़ारों अविष्कार हैं
पाँव मिले थे चलने को
पंख किए इख्तियार है
छोटी-बड़ी सारी समस्याओं से
पा लेता निस्तार है
सुनामी से भी बचने का
खोज रहा उपचार है
लेकिन फ़ितरत ही कुछ ऐसी है
कुछ ऐसा इसका व्यवहार है
कि अपने ही हाथों मिटने को
हो जाता लाचार है
त्रेता युग हो या द्वापर युग हो
या कोई सरकार हो
मानव ने ही मानव का
सदा किया संहार है
राम-राज्य से डाओ-जोन्स तक
सब बातों का यही सार है
आदमी संतुष्ट रहने से
सदा करता रहा इंकार है
सिएटल,
12 दिसम्बर 2008
=============
सांड = bull
भालू = bear
बेल-आउट = bail-out
स्टॉक्स = stocks
सुनामी =tsunami
डाओ-जोन्स = Dow-Jones Index
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:13 AM
आपका क्या कहना है??
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उस रात भी अमावस थी
जब हमने कागज़ी रावण जलाए थे
और बच्चों को बड़े गर्व से बतलाया था
कि देखो ऐसे होती है बुराई पर अच्छाई की जीत
उस रात भी अमावस थी
जब ईंट-गारे की ईमारत जली थी
और हमने कागज़ी बाण चलाए थे
सम्पादक को पत्र लिख कर
कविता लिख कर
लेख लिख कर
परिजनों के साथ फोन पर
दिल की भड़ास निकाल कर
और अब?
क्रिसमस की छुट्टियाँ है
स्कूल भी बंद है
और बच्चों ने कई दिनों से
प्लान बना रखा है
मेक्सिको जाने का
टिकट पहले ही लिए जा चुके हैं
और यहीं तो साल में एक मौका होता है
सबके साथ घूम-फिर आने का
मारीच तो आते रहेंगे
कभी स्वर्ण हिरण बन कर
तो कभी नाव में बैठ कर
अंगरक्षक
जनता को
एक काल्पनिक रेखा के भरोसे
छोड़ कर
रक्षा करते रहेंगे
कभी महाराजाधिराज राम की
तो कभी महामहिम मुख्यमंत्री की
जनता के लुट जाने पर
वे आर्तनाद करेंगे
इधर-उधर
पशु-पक्षियों से
पेड़-पौधों से
पूछ-पूछ कर
समय बर्बाद करेंगे
किसी दूसरे देश से
मदद की मांग करेंगे
मिथकीय शत्रु के
मिट जाने पर भी
वे जनता को
परेशान करेंगे
कभी अग्निपरीक्षा लेंगे
तो कभी सत्ता के लोभ में
जंगल में रोता-बिलखता छोड़ देंगे
सिएटल,
8 दिसम्बर 2008
कुछ दिन पहले मेरा जन्मदिन था
तुमने शुभकामनाएँ भेजी थी
आज लगता है
वे बेमानी थी
आज तुम्हारा जन्मदिन है
और मैं तुम्हें 'विश' नहीं कर सकता
क्यूँकि हमारी दोस्ती में विष भर गया है
मैं फिर भी तुम्हें शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ
क्योंकि मुझे हिसाब-किताब बराबर रखने की आदत है
देखो तुम भड़कना नहीं
इस आग को सम्हाल कर रखना
शाम को केक पर मोमबत्ती जलाने में
काम आएगी
और हाँ
तुमने मुझसे
नयी सड़क से
एक कविता की किताब लाने को कहा था
वो मैं ले आया हूँ
लगता है तुम्हें उसकी कोई खास ज़रुरत नहीं है
प्यार, वफ़ा, वादे, शिकवा-शिकायत, रुसवाई, विश्वासघात
यहीं सब कुछ तो है उसमें
और उन सबसे तुम अच्छी तरह वाकिफ़ हो
तुमने उस पर हुए खर्च के भुगतान की भी बात की थी
तो सुनो
किताब के 180
मेट्रो के 11
रिक्शा के 30
कुल मिला कर 221
और झगड़ा हो जाने पर भी
उसे फ़ाड़ कर न फ़ेंक देने की फ़ीस?
उसका अब तुम ही अंदाज़ा लगाओ
अगली बार
किसी से नाता तोड़ो
तो हिसाब-किताब पूरा कर के तोड़ना
सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:36 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: relationship
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:26 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: relationship
पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर
बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर
बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुक़म्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर
न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियां गई हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर
नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज है जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर
आशा की किरण तब फूटेंगी
सदियों की नींद तब टूटेंगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारे जब गिर जाएंगी
होगा जब घर एक घर
न तेरा घर न मेरा घर
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:27 PM
आपका क्या कहना है??
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--- एक ---
गिरि पर गिरी
धीरे से गिरी
धरा पर गिरी
धीरे से गिरी
न गरजी
न बरसी
नि:शब्द सी
बस गिरती रही
रुई से हल्की
रत्न सी उज्जवल
वादों से नाज़ुक
पंख सी कोमल
बन गई पत्थर
जो कल तक थी कोपल
ज़मीं और आसमां में
यहीं है अंतर
देवता भी यहाँ आ कर
बन जाता है पत्थर
--- दो ---
विचरती थी हवा में
बंधन से मुक्त
धरा पर गिरी
तो हो जाऊँगी लुप्त
यही सोच कर
गई थी सखियों के पास
कि मिल-जुल के
हम कुछ करेंगे खास
लेकिन कुदरत के आगे
न चली एक हमारी
देखते ही देखते
पाँव हो गए भारी
जा-जा के छाँव में
मैं छुपती रही
आ-आ के धूप
मुझे चूमती रही
जब बोटी-बोटी पिघली
तब बेटी थी निकली
सोचा था उसे
तन से लगा कर रहूँगी
जो दु:ख मैंने झेले
उनसे उसे बचा कर रहूँगी
मैं थी चट्टान सी दृढ़
और वो थी चंचल कँवारी
एक के बाद एक
छोड़ के चल दी बेटियाँ सारी
मैं जमती-पिघलती
झरनों में सुबकती रही
कभी क्रोध में आ कर
कुंड में उबलती रही
माँ हूँ मैं
और जननी वो कहलाए
कष्ट मैंने सहे
और पापनाशिनी वो कहलाए
ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
यहाँ रिसते हैं रिश्ते
वहाँ थी आज़ाद सिकंदर
--- तीन ---
ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
परिवर्तन का सदा
धरती जपती है मंतर
आसमां है
जैसे का तैसा ही कायम
धरती ही रुप
बदलती निरंतर
जो भी यहाँ
आया है अब तक
लौट के गया
कुछ और ही बन कर
चाँद भी जब से
इसके चपेटे में आया
ख़ुद को बिचारे ने
घटता-बढ़ता ही पाया
सिएटल,
22 नवम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:30 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: intense, March2, nature, relationship, TG
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:58 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Akbar Alahabadi, news, Obama, parodies, US Elections
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमे क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हें समझे हम इन्हें जाने
ये नहीं अहमियत हमारी
तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते हैं खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी
हम इन्हें समझे ...
ना तो है हम डेमोक्रेट
और नहीं है हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी
हम इन्हें समझे ...
न डेमोक्रेट्स का प्लान
न रिपब्लिकन्स का वाँर
कर सकता है
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोइ खैरियत हमारी
हम इन्हें समझे ...
हम जो भी हैं
अपने श्रम से हैं
हम जहाँ भी हैं
अपने दम से हैं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी
हम इन्हें समझे ...
फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी
हम इन्हें समझे ...
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:45 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: news, Obama, TG, US Elections
अमरीकी वोटर की शामत आई है
एक तरफ़ कुआँ एक तरफ़ खाई है
किसे वोट दे किसे न दे
सोच सोच हालत पतली हो आई है
48 पुराने राज्यों के होते हुए
दो नए-नवेले राज्यों ने धूम मचाई है
एक तरफ़ अलास्का एक तरफ़ हवाई है
मैनलेंड के निवासियों पर जम कर चपत लगाई है
पहले साल भर चला वो नाटक था
जिसमें एक नारी थी एक वाचक था
चुनना दोनों में से सिर्फ़ एक था
जबकि इरादा किसी का न नेक था
धरा पे धरा ये संसार है
नारी से करता ये प्यार है
दिल करता उस पे निसार है
नित देता उसे उपहार है
लेकिन अहंकार के आगे मजबूर है
नारी रानी बने नहीं मंजूर है
हिलैरी का दिल इसने तोड़ दिया
हवाईअन से नाता जोड़ लिया
चलो डेमोक्रेट्स ने किया तो कोई ग़म नहीं
लेकिन रिपब्लिकन्स भी निकले कम नहीं
गधे तो गधे ही होते हैं
लेकिन हाथी तो साथी होते हैं
जब जनता नारी नकार चुकी थी
खा-पी के सब डकार चुकी थी
जनता को फिर झकझोड़ दिया
ओल्ड बॉयज़ क्लब का भ्रम तोड़ दिया
ओबामा के सामने बम फोड़ दिया
चुनाव का रुख मोड़ दिया
रानी नहीं तो पटरानी ले लो
बूढ़े के साथ जवानी ले लो
'गर मैं गुड़क गया तो
पेलिन राज करेंगी
5 बच्चों का खयाल रखती है
आप का भी ये खयाल रखेंगी
लेकिन मैं हूँ एक एन-आर-आई
पक्का घाघ और अवसरवादी
इनके झांसे में नहीं आनेवाला
लाख सफाई चाहे दे दें
मुझे तो नज़र आए दाल में काला
सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं
क्या अलास्का और क्या हवाई है?
एक बर्फ़ तो एक समंदर है
इनके बीच क्या हो सकती लड़ाई है?
हिम से ही सागर निकले
सागर से ही हिम बरसे
जल के ही दोनों रूप है
जल बिन हर कोई तरसे
हम तो अपने मस्त रहेंगे
वोट इनमें से एक को न देंगे
न इस चुनाव में
न किसी चुनाव में
न भाग लिया है
न भाग लेंगे
कल को अगर कोई मुसीबत आए
हम तो फ़्लाईट पकड़ कर भाग लेंगे
3 नवम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:47 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: news, Obama, US Elections
आसमान में यान
पटरी पे नुकसान
भारत है यारो
एक विडम्बना महान
न पीने को पानी
न खाने को धान
महाशक्ति बनने का
रखता गुमान
अमिताभ हैं प्राण
शाह रुख हैं जान
गली-गली में दुश्मन
हिन्दू-मुसलमान
बिन्द्रा हैं शान
ठाकरे हैवान
दोनों का जनता
करती सम्मान
सीमा पे खेलता
जो जान पे जवान
मरणोपरान्त उसका
गाती गुणगान
और देश जो त्यागे
वो कहलाए महान
सर पे बिठाए
और उसे माने विद्वान
लुटते हैं शिक्षक
लुटते संस्थान
इस देश का कौन
करेगा उत्थान?
मजहब है बिकता
मन्दिर है दुकान
ईश्वर को छोड़
पंडित पूजे जजमान
गाँव से शहर की ओर
सबका रूझान
बिगड़ते हैं घर
उजड़ते हैं खलिहान
बढ़ती है भीड़
खोता है इंसान
फ़ैलते हैं शहर
सिकुड़ते हैं उद्यान
और योगी महोदय?
लेकर थोड़ा सा ज्ञान
कहते हैं नाक आपकी
एक जादू की खान
बस हवा निकली
और हुआ दर्द अन्तर्धान
मिनटों में कर लो
हर रोग का निदान
लगाते है शिविर
जहाँ होता है ध्यान
बढ़ती बेरोज़गारी की ओर
न देते हैं ध्यान
इस देश का देखो
कैसा संविधान
जो देते हैं वोट
नहीं जानते विधान
हर पांच साल
बस एक ही तान
लोकतन्त्र ने थमा दी
लुटेरों को कमान
असहयोग और अनशन से
जो जन्मी थी सन्तान
60 बरस की है
पर है अब भी वो नादान
कोइ भी समस्या
करनी हो निदान
असहयोग अनशन ही
इसे सूझे समाधान
दिल्ली,
24 अक्टूबर 2008
+91-98682-06383
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:21 AM
आपका क्या कहना है??
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भोली बहू से कहती हैं सास
तुम से बंधी है बेटे की सांस
व्रत करो सुबह से शाम तक
पानी का भी न लो नाम तक
जो नहीं हैं इससे सहमत
कहती हैं और इसे सह मत
करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें
डाँक्टर कहे
डाँयटिशियन कहे
तरह तरह के सलाहकार कहे
स्वस्थ जीवन के लिए
तंदरुस्त तन के लिए
पानी पियो , पानी पियो
रोज दस ग्लास पानी पियो
ये कैसा अत्याचार है ?
पानी पीने से इंकार है!
किया जो अगर जल ग्रहण
लग जाएगा पति को ग्रहण ?
पानी अगर जो पी लिया
पति को होगा पीलिया ?
गलती से अगर पानी पिया
खतरे से घिर जाएंगा पिया ?
गले के नीचे उतर गया जो जल
पति का कारोबार जाएंगा जल ?
ये वक्त नया
ज़माना नया
वो ज़माना गुज़र गया
जब हम-तुम अनजान थे
और चाँद-सूरज भगवान थे
ये व्यर्थ के चौंचले
हैं रुढ़ियों के घोंसले
एक दिन ढह जाएंगे
वक्त के साथ बह जाएंगे
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ
ये भी कहीं खो जाएंगे
आधी समस्या तब हल हुई
जब पर्दा प्रथा खत्म हुई
अब प्रथाओ से पर्दा उठाएंगे
मिलकर हम आवाज उठाएंगे
करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:50 AM
आपका क्या कहना है??
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रात और दिन पाँव पड़ूँ
मेरी सजनी फिर भी नैन चुराए
जाने कहाँ मंत्र है वो
मैं जो पढ़ूँ और वो मुस्काए
जप-तप फूल-शूल कछु काम न आए
मन में शक़ जब घर कर जाए
शूल चुभे तो निकल भी जाए
शक़ बस फूलता-फलता ही जाए
मुझे नहीं कहे मेरी गलती है क्या
फिर भी मुझको रोज सताए
ऐसा सलूक जो कोई करे
जग में जुल्मी वो कहलाए
एक बार मेरी अरज सुनो
एक बार मुझसे बात तो करो
इतना रहम तो करो ओ सनम
कि तेरा लिखा ख़त आज मुझे मिल जाए
दुनिया में यूँ तो दोस्त मिलते नहीं
मिलते हैं तो यूँ बिछड़ते नहीं
हम दोनो मिले पर मिल न सके
जाने किस किस की लगी हमें हाए
पढ़-पढ़ थक गया वेद-वेदान्त
कोई न मिला जो करे मन को शांत
और कोई क्यूँ करे उपचार
घर का ही भेदी जब लंका ढाए
सिएटल,
9 अक्टूबर 2008
(शैलेन्द्र से क्षमायाचना सहित)
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:57 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: relationship, valentine
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:13 AM
आपका क्या कहना है??
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Labels: Majrooh, parodies, relationship
छोड़-छाड़ के सारे काम
जप रहा था मैं नाम घनश्याम
तभी कामदेव ने मार कर बाण
कर दिया मेरा काम तमाम
प्रकट हुई एक सुंदर सी सूरत
मानो अजंता की मनोहारी मूरत
मधुर-मधुर वो गीत सुनाए
भाव-भंगिमा से मुझे भरमाए
मटक-मटक कर इत-उत डोले
मन में भड़काए प्यार के शोले
बड़े-बूढ़ों ने एक बात कही थी
सीधी सच्ची बात कही थी
कि चाहे जितने तुम अंडे ले लो
पर मुर्गी का कभी न पेट खोलो
कि जो कुआँ तुम्हारी प्यास बुझाए
झांक के न कभी उसके अंदर देखो
लेकिन मुझमें इतना होश कहाँ था
सोच-सोच कर मेरा हाल बुरा था
कि जो ओढ़-आढ़ कर है इतनी सुंदर
अनावृत्त हो तो लगेगी और भी सुंदर
यही सोच कर मैंने हाथ बढ़ाया
धीरे से उसका पल्लू हटाया
मेरी किस्मत भी देखो कैसी फूटी
कि ऐन मौके पर नींद थी टूटी
किरणें ओढ़े खड़ी रही शाम
मैं पड़ा रहा दिल को थाम
सिएटल,
3 अक्टूबर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:46 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: misc
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:56 PM
आपका क्या कहना है??
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Labels: parodies, relationship, Sahir, valentine
मेरा महबूब भी
कितनी बड़ी तोप है
आँखें चार किए हुए
हुए नहीं चार दिन
और हज़ारों खंजर का
थोप देता आरोप है
काश
ये मैं पहले जान लेता
कि जो दे देता है दिल
वही फिर ले लेता है जान
जब बरसता
उसका प्रकोप है
पहले
वो जब खुश था
तो रेन-फ़ारेस्ट की तरह सब्ज़ था
आजकल
गुस्सा है
तो ठंडा-ठंडा युरोप हैं
जल्लाद से भी बढ़कर
अगर कोई है
तो वो मेरा माशूक़ है
बिना अंतिम इच्छा पूछे ही
खींच लेता वो रोप है
सिएटल,
22 सितम्बर 2008
==============
रेन-फ़ारेस्ट = rain forest
सब्ज़ = हरा-भरा
युरोप = Europe
रोप = rope, रस्सी
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:07 PM
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Posted by Rahul Upadhyaya at 11:07 PM
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गौड़सन्स टाईम्स के एक लेख में, केंद्रीय हिंदी समिति के सदस्य, राहुल देव लिखते हैं:
"राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़ारिश है कि अंग्रेज़ी को पहली कक्षा से पढ़ाया जाए और तीसरी से दूसरे विषयों की पढ़ाई का माध्यम बनाया जाए। वह यह भी कहता है कि कक्षा और विद्यालय के बाहर भी अंग्रेज़ी सीखने के लिए प्रेरक, उपयुक्त माहौल बनाया जाए। हर कक्षा में इसके लिए पुस्तकें, मल्टीमीडिया उपकरण रखे जाएं, अंग्रेज़ी क्लब बनाए जाएं। देश के 40 लाख शिक्षकों को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। छ: लाख नए अंग्रेज़ी शिक्षक तैयार किए जाएं। "
राहुल देव पूछते हैं कि जब "ज्ञान आयोग स्वयं मानता है कि अंग्रेज़ी जो प्रथम भाषा के रुप में प्रयोग करने वाले एक प्रतिशत हैं। बाकी 99 प्रतिशत को अंग्रेज़ी दक्ष बनाने में कितना धन लगेगा? क्या यह संभव है जबकि एक प्रतिशत की भाषा बनने में अंग्रेज़ी को 175 साल लग गए?"
लेकिन साथ ही यह शिकायत भी करते हैं कि -
"सारे समाज में अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के बीच शक्ति और प्रतिष्ठा का जो संतुलन है उसे देखते हुए अगर पहली कक्षा से छात्रों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाया गया तो क्या वे अपनी भाषाओं को वैसी ही इज़्ज़त दे पाएंगे? आज ही से शुरु से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने जीने वाले बच्चे भारतीय भाषाओं का कैसा प्रयोग करते हैं, कितना महत्व देते हैं, अपनी परंपराओं, विरासत, सांस्कृति जड़ों से कितना जुड़े हैं, यह सबके सामने हैं।"
यह तो ऐसे हुआ कि जैसे चित भी मेरी पट भी मेरी! अगर अंग्रेज़ी 175 साल बाद सिर्फ़ एक प्रतिशत लोगो की प्रथम भाषा बन पाई हो तो फिर अंग्रेज़ी के खिलाफ़ इतना शोर शराबा क्यों?
मैं केंद्रीय विद्यालय का विद्यार्थी रहा हूँ, जहाँ आमतौर पर सारे विषय अंग्रेज़ी में ही पढ़ाए जाते हैं। जो छात्र सामाजिक अध्ययन हिंदी में पढ़ना चाहते हैं, वे हिंदी में पढ़ सकते हैं। लेकिन गणित और विज्ञान अंग्रेज़ी में ही पढ़ाए जाते हैं। इसे आप गरीब सरकारी कर्मचारियों का कान्वेंट स्कूल कह सकते हैं। प्राय: सारे छात्र अंग्रेज़ी में ही सारे विषय पढ़ते थे। साथ में हिंदी भी और संस्कृत भी। एक मैं ही अकेला था जिसने सामाजिक अध्ययन हिंदी में लेना तय किया। क्यों? क्योंकि मैं केंद्रीय विद्यालय में कक्षा आठ में दाखिल हुआ था। मेरी प्राथमिक शिक्षा मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में हुई थी। वहाँ, कक्षा छ: तक अंग्रेज़ी का एक अक्षर नहीं पढ़ाया जाता था। इस वजह से मेरी अंग्रेज़ी काफ़ी कमज़ोर थी।
सच तो यह है कि अंग्रेज़ी की बदौलत ही अच्छी नौकरी मिलती है, अच्छा वेतन मिलता है, उपर उठने के अवसर मिलते हैं। आज कम्प्यूटर पर, इंटरनेट पर यूनिकोड के सहारे हिंदी लिखना और पढ़ना आसान है, लेकिन फिर भी बिना अंग्रेज़ी के आप लंगड़ा कर ही चल सकते हैं। प्रोद्योगिकी, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, विज्ञान, विधि के क्षेत्र में अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है।
आज हर परिवार जो इस काबिल है कि वो अपने बच्चों को अंग्रेज़ी में शिक्षा दिला सके, दिला रहा है। इसका मतलब साफ़ है कि जो गरीब है, जिनके पास साधन नहीं है, उनके बच्चे अंग्रेज़ी शिक्षा के अभाव में और गरीब होते जा रहे हैं; और ये क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि सरकार हस्तक्षेप न करे और हर जनसाधारण को शिक्षा का समान अवसर न दे। ज्ञान आयोग की सिफ़ारिश के मुताबिक अब हर सरकारी स्कूल केंद्रीय विद्यालय की पद्धति पर चलेगा। ये एक हर्ष का विषय है। केंद्रीय विद्यालय के कई विद्यार्थियों से मेरी मुलाकात होती रहती है और वे सब अपनी संस्कृति से उतने ही जुड़े हैं जितने कि अन्य भारतीय।
राहुल देव का एक सुझाव यह भी है कि
"सारा देश अगर अपनी भाषाओं को छोड़ कर वैश्वीकृत होने, महाशक्ति बनने, आर्थिक प्रगति के एकमात्र माध्यम के रुप में अंग्रेज़ी को अपनाने के लिए तैयार है तो एक जनमत संग्रह करा लिया जाए और अगर बहुमत अंग्रेज़ी के पक्ष में हो तो उसे ही राष्ट्रभाषा, राजभाषा, शिक्षा का प्रथम माध्यम बना दिया जाए।"
अच्छा सुझाव है। एक जनमत कश्मीर में भी हुआ था। आज तक उसको भुगत रहे हैं।
जनमत के बजाय आप स्वयं जाकर देख ले कि अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों के आगे दाखिले के लिए कितनी लम्बी कतार है। सब समझ में आ जाएगा। ये तब जबकि इन स्कूलों की बहुत महंगी फ़ीस होती है।
इससे पहले कि आप ज्ञान आयोग की सिफ़ारिशो का विरोध करें, अंग्रेज़ी हटाओ के नारे लगाए, मेरा एक निवेदन है। पहले आप अंग्रेज़ी भूल कर दिखाए। कोशिश कर के देखें कि आप कितने दिन बिना अंग्रेज़ी के रह सकते हैं। सिर्फ़ बिना बोले ही नहीं - बिना समझे, बिना लिखें, बिना पढ़े, बिना सुने।
सिएटल,
17 सितम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:02 PM
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Posted by Rahul Upadhyaya at 5:05 PM
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हिंदी ही है दुनिया की एकमात्र भाषा
जिसे करोड़ों कहते हैं अपनी मातृभाषा
हिंदी दिवस के उपलक्ष्य पर प्रस्तुत हैं 3 पहेलियाँ। तीनों पहेलियों के उत्तर से 'शुद्ध हिंदी' वालो को आपत्ति हो सकती है। क्योंकि वे शब्द या तो उर्दू के हैं या अंग्रेज़ी के या भोजपुरी के - शुद्ध हिंदी के नहीं। या ये कहूँ कि उनकी जड़ संस्कृत में नहीं है। मैं ये समझता हूँ कि ऐसे शब्दों से हिंदी समृद्ध होती है, नष्ट नहीं। चाहे कितनी ही नदियाँ सागर में मिल जाए, सागर नष्ट नहीं होता, भ्रष्ट नहीं होता, प्रदूषित नहीं होता।
1 -
झूम-झूम के नाचे आज ??? ?? (3, 2)
पढ़े यूनिकोड, नहीं पढ़े ?? ??? (2, 3)
2 -
जब भी कोर्ट में मुझसे ?? ?? करें (2, 2)
कहे कि आप ज़ब्त अपने ???? करें (4, 4)
3 -
और हाँ, ये रही वो ??? (3)
जिन पे खेलता था ?? ?? (2, 2)
उदाहरण:
क -
जब तक देखा नहीं ??? (3)
अपनी खामियाँ नज़र ?? ?(2, 1)
उत्तर:
जब तक देखा नहीं आईना
अपनी खामियाँ नज़र आई ना
ख -
मफ़लर और टोपी में छुपा ?? ?? (2, 2)
जैसे ही गिरी बर्फ़ और आई ??? (3)
उत्तर:
मफ़लर और टोपी में छुपा सर दिया
जैसे ही गिरी बर्फ़ और आई सर्दियाँ
अधिक मदद के लिए अन्य पहेलियाँ यहाँ देखें:
http://mere--words.blogspot.com/search/label/riddles_solved
शुद्ध हिंदी के विषय पर आप मेरा एक लेख और एक कविता यहाँ देख सकते हैं:
शुद्ध हिंदी - एक आईने में - http://mere--words.blogspot.com/2007/12/blog-post_03.html
बदलते ज़माने के बदलते ढंग हैं मेरे - http://mere--words.blogspot.com/2008/06/blog-post_18.html
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:01 PM
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पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर
बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर
बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुक़म्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर
न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियां गई हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर
नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज है जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर
आशा की किरण तब फूटेंगी
सदियों की नींद तब टूटेंगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारे जब गिर जाएंगी
होगा जब घर एक घर
न तेरा घर न मेरा घर
सेन फ़्रांसिस्को
24 सितम्बर 2002
(अक्षरधाम पर हमले के बाद)
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:37 AM
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बातों में बात है
बात एक लाख की
जो करते हैं शक़
नहीं कर सकते हैं आशक़ी
क्या करेंगे वो इश्क़
जिन्हें खाता हो शक़
जिनके मन में हो खोट
कैसे पहुँचेगे वो दिल तक
दिल तो समझे बस बातें जज़बात की
दायें भी देखें
बाएँ भी देखें
हर तरफ़ देख कर
पाँसा जो फ़ेंके
वो जीत भी जाए तो ऐसी जीत किस काम की
शक़ ने इस कदर
जकड़ा उन्हें
कि मैं था प्रेम
लगा प्रेम चोपड़ा उन्हें
ऐसी भी क्या दोस्ती जो दोस्ती हो बस नाम की
न आप हैं शक़्क़ी
न आप हैं शक़्क़ी
हम सब हैं भरोसेमंद
ये बात है पक्की
मैं तो बात कर रहा हूँ इस दुनिया जहान की
सिएटल,
11 सितम्बर 2008
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आशक़ी = आशिक़ी, प्रेम
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:58 PM
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Labels: relationship
जाते जाते यार मुझे क्या दे गया
जीते जी मरने की सज़ा दे गया
रहता था खुश, स्वच्छंद था मैं
कली कली महके, ऐसी सुगंध था मैं
जागूँ सारी-सारी रात ऐसी दवा दे गया
न उससे बात करूँ, न मुलाकात करूँ
ज़र्द और ज़ब्त सब्ज़ जज़बात करूँ
ऐसी-वैसी कसम कई दफ़ा दे गया
कर के गया कुछ ऐसा बर्बाद मुझे
कि सांस भी लूँ तो आए याद मुझे
दिल ले कर बेरहम दमा दे गया
बचने की अब कोई उम्मीद नहीं
रोज़ ही रोज़े होगे, होगी ईद नहीं
प्यास न बुझे ऐसी यातना दे गया
मुक्ति की मेरी कोई तरकीब तो हो
चाहे मार ही डाले, कोई रक़ीब तो हो
यार मेरा जीने की बददुआ दे गया
सिएटल,
9 सितम्बर 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:29 PM
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Labels: relationship, valentine
यार मेरा मुझसे आज जुदा हो गया
जो भी था पल भर में हवा हो गया
हँसता था वो
हँसाता था वो
बात बात पर गीत
गाता था वो
आज मुझे रोता छोड़ वो दफ़ा हो गया
न मेरी सुनता है वो
न मेरी मानता है वो
कर के ही रहता है
जो भी ठानता है वो
सोचा था क्या और ये क्या हो गया
मुझ पे मरना भी था
दुनिया से डरना भी था
हर कदम उसे
फ़ूंक-फ़ूंक के रखना भी था
कर्तव्य में जल प्यार फ़ना हो गया
सिएटल,
5 सितम्बर 2008
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फ़ना = विनाश
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:19 AM
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Labels: relationship, valentine
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:50 PM
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Labels: Hasrat Jaipuri, parodies, relationship, world of poetry
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:43 PM
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Labels: Kafil Azer, parodies
कहते कहते प्रियतम
तुम्हें लगने लगा है प्रिय तम
अब अंधेरा ही तुम्हे रास आता है
और वहीं रहती हो तुम हरदम
गाते गाते सरगम
चढ़ने लगा है तुम्हारे सर ग़म
अब उदास और निराश ही
रहती हो तुम हरदम
अरे, ऐसी भी क्या है बेबसी?
तुम तो सुंदर थी एक बेब सी
इस प्यार-वफ़ा के चक्कर में
क्यूँ सिकुड़ गई सड़े सेब सी?
इस से तो अच्छे हैं वो मंकी
जो कर लेते हैं अपने मन की
न करते हैं कोई गिला-शिकवा
न रखते हैं शर्त किसी बंधन की
सिएटल,
28 अगस्त 2008
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तम = अंधेरा
बेब = babe
सेब = सेव
मंकी = monkey
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:22 PM
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Labels: relationship, valentine
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:44 AM
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Labels: M G Hashmat, parodies
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:49 PM
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Labels: parodies, S H Bihari, world of poetry
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:14 PM
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Labels: parodies, Rajendranath Rahabar, TG, valentine
बच्चे हमारे आज हो गए बड़े
पाँव पर अपने देखो ये हैं खड़े
नन्हें-मुन्नों को ले आगे बढ़े
हँसें तो लगे जैसे मोती जड़े
आओ चलो मिलकर दुआ करें
सफ़लता की सीढ़ी ये हरदम चढ़ें
आए मुसीबत, डट कर लड़ें
दिन दूनी रात चौगुनी ख्याति बढ़े
मिले पुरुस्कार, खिताब बड़े
इनके ही चर्चे, इनके ही किस्से
सदा सुनें और सदा पढ़ें
17 अगस्त 2008
[अनूप जी के कहने पर इस कविता और ट्रिप के बारे में थोड़ा खुलासा।
13 अगस्त से 17 अगस्त तक सिएटल की एक संस्था - आई-ए-डबल्यू-डबल्यू - (पश्चिमी वाशिंगटन भारतीय संघ) ने "कैम्प भारत 2008" का आयोजन किया था। स्थान था सिएटल से कुछ दूर, पोर्ट टाउनसेंड स्थित "फ़ोर्ट वार्डेन।" ये कोई किला नहीं है, बल्कि एक परिसर है जहाँ से तोप आदि शस्त्र के साथ सैनिक एक खास मुकाम की किसी आक्रमण से रक्षा करते है। यहाँ सैनिक रहते तो थे, तोपें भी थी, लेकिन यहाँ कभी भी कोई लड़ाई नहीं हुई, क्योंकि कोई आक्रमण भी नहीं हुआ।
अब इस फ़ोर्ट को एक रिज़ोर्ट का रुप दे दिया गया है - जहाँ सैनिको के केबिन को होटल के कमरों में बदल दिया गया है। कई तरह की आधुनिक सुविधाए मौजूद है। एक शानदार भोजनालय है - जहाँ अत्यंत स्वादिष्ट भोजन बनाया जाता है और अति सुरुचिपूर्ण तरीके से परोसा जाता है।
"कैम्प भारत 2008" में 9 वर्ष से 17 वर्ष की आयु तक के कुल 160 बच्चे थे। उनमें से 15-17 वर्षीय बच्चों को वाय-बी और वाय-सी नियुक्त किया गया और इन्होंने ज़िम्मेदारी ली इस कैम्प की रूपरेखा तैयार करने की और उसे चलाने की। कब क्या होगा, कहाँ होगा, कैसे होगा। सब इनके सर पर। मुझ जैसे 16 वयस्क स्वयंसेवक नियुक्त किए गए जो कि ज़रुरत पड़ने पर इन वाय-बी/वाय-सी की मदद कर सके। जैसे कि खेल कूद के दौरान रेफ़्री बन जाए, तम्बू गाड़ दे, कुर्सीयाँ आदि यहाँ से वहाँ रख दे। मुझे काम सौपा गया था - अधिकृत फ़ोटोग्राफ़र का और कबड्डी के रेफ़्री का।
उन पाँच दिनों में मैंने इन वाय-बी/वाय-सी को अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी हँसते-हँसाते हुए निभाते देखा। ये पाँच दिन इतने सुखमय बीते कि इसकी तुलना नहीं की जा सकती। बस समझ लीजिए कि जैसे मैं किसी राजकुमार की बरात में गया था।
आते वक्त मेरे मन में एक विचार आया कि 'बच्चे हमारे आज हो गए बड़े।' और जैसा कि आमतौर पर होता है, पहली पंक्ति बनते ही पूरी कविता तैयार हो गई। ]
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:43 PM
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Labels: misc
दिल दिल है कोई शीशा तो नहीं कि चोट लगी और टूट गया
प्यार प्यार है कोई दाग नहीं कि हाथ मला और छूट गया
सपनें सपनें हैं कोई फूल नहीं कि वक़्त ढला और बिखर गए
दोस्त दोस्त हैं कोई स्टेशन तो नहीं कि ट्रेन चली और बिछड़ गए
हम हम हैं कोई किरदार नहीं कि पन्नों में ही दब के रह गए
हम प्रेमी हैं कोई गुनहगार नहीं कि कारावास में ही मर गए
हमें प्यार हुआ और हमने प्यार किया
सिर्फ़ प्यार, प्यार और प्यार किया
माना कि हम शीरीं-फ़रहाद नहीं
पर किया किसी का घर बर्बाद नहीं
सब कुछ किया लेकिन विवाह नहीं
ताकि रिश्ता हो कोई तबाह नहीं
वो पावन ज्योत अब भी जलती है
जिसे मन-मंदिर में तुम जला गए
ये हवाएँ अब भी वो गीत गाती हैं
जिसे जाते वक़्त तुम गुनगुना गए
वो निर्मल नदी अभी भी बहती है
जिसमें प्रेम रस तुम बरसा गए
वो वादी अभी भी महकती है
जहाँ तुम प्रेम की बेल लगा गए
मेरा दिल अब भी धड़कता है
तुम रीत ही कुछ ऐसी चला गए
सिएटल,
22 अगस्त 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:39 AM
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Labels: relationship, valentine
छल-छल के छलनी किया मछली ने मुझे
उड़-उड़ के लूटा तितली ने मुझे
दिल्ली वाली बिल्ली दिल ले गई
चेन्नई वाली चिड़िया चैन ले गई
कहीं का न छोड़ा किसी गली ने मुझे
पागल दीवाना जब दिल हो गया
उनका इरादा तबदील हो गया
प्यासा लौटाया बदली ने मुझे
चंचल छबीली मुझे टीज़ कर गई
छप्पन छुरी ऐसी टीस भर गई
जैसे धर दिया हो ब्रूस-ली ने मुझे
सिएटल,
19 अगस्त 2008
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छल =to deceive
छलनी = to be full of small holes
तबदील = change
टीज़ = tease
छप्पन छुरी = अपने रुप से पुरुषों पर गहरा वार करने वाली रमणी
टीस =throbbing pain
ब्रूस-ली = Bruce Lee
Posted by Rahul Upadhyaya at 6:36 PM
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Labels: CrowdPleaser
सूरज निकला
पंछी चहचहाएँ
लेकिन सुबह न हुई
अलार्म बजा
नींद टूटी
लेकिन सुबह न हुई
जो रोज़ सुबह सुबह मुझे जबरन उठाती थी
गा गा के अ-लोरी मेरी नींद भगाती थी
आज
न जाने किस गलतफ़हमी की हैं शिकार
कि बदला बदला सा है उनका व्यवहार
ये जानकर कि
वे पढ़ती हैं अब भी कविताएँ मेरी
मेरे दिल को मिला है चैन-ओ-क़रार
कि चलो कुछ तो राब्ता है उनका मुझसे
मुझसे ना सही
मेरी कविताओं से तो है उनको प्यार
सिएटल,
18 अगस्त 2008
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राब्ता = सम्पर्क, सम्बंध, लगाव, नाता, connection
जबरन = ज़बरदस्ती, against your will
अ-लोरी = लोरी का विपरित
चैन-ओ-क़रार = शांति, comfort
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:10 PM
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हुस्न और इश्क़ का असर हो गया
आदमी था काम का सिफ़र हो गया
हँस-हँस के लूटा हर बेब ने मुझे
आप को गिला कि मैं बेबहर हो गया
लिखता हूँ लिखता ही रहूँगा सदा
सुन-सुन के गालियाँ निडर हो गया
ख़ुद की कहता हूँ ख़ुदा की नहीं
जो मार के इन्सां अमर हो गया
नन्हा सलोना सा जीवन था मेरा
बढ़ते बढ़ते दीगर हो गया
फ़ोर्ट वॉर्डेन,
16 अगस्त २००८
============
सिफ़र = zero, शून्य
गिला = शिकायत
बेब = babe
बेबहर = बिना बहर का, without meter
दीगर = अन्य, another, दूसरा
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:56 PM
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Posted by Rahul Upadhyaya at 1:03 PM
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Labels: intense, nature, relationship
खुशहाली की नई मिसाल देखिए
एन-आर-आई एक जनाब देखिए
जी-हज़ूरी करते हैं औरों की लेकिन
माँ-बाप से करवाते काम देखिए
जिस फ़ौज ने मार डाले पूर्वज इनके
उसी फ़ौज में भरती संतान देखिए
बहुत घमंड है इन्हें दान पे अपने
ख़ुद खोजते सस्ती दुकान देखिए
आत्मा बेच कर धन हैं कमाते
फलता-फूलता ये व्यवसाय देखिए
बैंक बैलेंस देख के इतराते हैं लेकिन
अपना एक भी नहीं पास देखिए
नेताजी माताजी तक तो सही है
ख़ुद पर सहते नहीं कटाक्ष देखिए
जब भी पढ़ते हैं राहुल की रचना
तमतमाता हुआ रुख़सार देखिए
सिएटल,
12 अगस्त 2008
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भरती = enlisted
रुख़सार = गाल
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:28 PM
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Labels: Anatomy of an NRI, intense, nri, TG
वतनफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे मन में है
विदेशी नागरिकता का ख़्वाब आज हमारे जन-जन में हैं
डॉक्टर नहीं, इंजीनियर नहीं
वकील नहीं, कलाकार नहीं
ऐसा कोई व्यवसायी नहीं
जो बिकने को तैयार नहीं
बिक गया अमरीका में कोई तो कोई बिक गया लंदन में है
सुबह नहीं, शाम नहीं
दिन नहीं, रात नहीं
ऐसा कोई वक़्त नहीं
जब न होती बात यही
कि सबसे सुखी संतान वही जो पलती विदेशी आंगन में है
हाय करे, हैलो करे
झुक झुक के नमस्कार करे
गौरी चमड़ी, काली कार
देख देख के जयजयकार करे
मृत होते आत्मसम्मान को हम ढक रहे सिक्कों के कफ़न में है
मैं नहीं, आप नहीं
भाई नहीं, बाप नहीं
ऐसा कोई व्यक्ति नहीं
जो करता धन का जाप नहीं
एक एक करके सब के सब खप गए इस ईधन में हैं
पूजा नहीं, पाठ नहीं
किसी का सत्कार नहीं
उंगलियों पे गिन सको
इतने भी संस्कार नहीं
न खुद्दारी है किसी भाई में न मान-मर्यादा किसी बहन में है
गाँव नहीं, शहर नहीं
गली नहीं, बस्ती नहीं
एक भी मुझे मिली नहीं
ऐसी कोई हस्ती कहीं
जो तल्लीन देश के, समाज के, विकास के चिंतन में है
पूरब नहीं, पश्चिम नहीं
उत्तर नहीं, दक्षिण नहीं
ऐसी कोई दिशा नहीं
जहाँ न हो लक्षण यही
कि हर एक शाख पे उल्लू बैठा आज इस उपवन में है
सिएटल,
12 अगस्त 2008
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:32 AM
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