हमेशा की तरह आज फिर मैं अपनी मम्मी को शाम पाँच बजे पोखर पर घुमाने ले गया। वहाँ कुछ बतखें और कनाडियन गीज़ पानी में अंदर-बाहर होते रहते हैं। मम्मी को यह सब देखना अच्छा लगता है। वे वहाँ रखी कुछ कुर्सियों में से एक पर बैठ कर खूब आनन्द उठातीं हैं।
मैं तीन तौलिये ले जाता हूँ। दो हथ्थों पर रखता हूँ। एक पर वे बैठ जातीं हैं। महामारी में एहतियात ज़रूरी है।
मैं पोखर के चक्कर लगाता हूँ। सात बजे तक। एक बार वजन के साथ। दाएँ हाथ में पच्चीस पाउंड। बाएँ में बीस। एक बार बिना वजन के। मुझे डायबीटीज़ है। चलना मेरे लिए लाभदायक है। वजन उठाने से दिल की धड़कन भी बढ़ती है। और हड्डियाँ भी मज़बूत होतीं हैं।
कुर्सियाँ आठ हैं। अलग-अलग स्थान पर। कहीं दो। कहीं तीन। मम्मी के सिवाय कोई नहीं बैठता है।
घूमने भी इक्का-दुक्का लोग आते हैं। इतना ख़ूबसूरत नजारा है। कुछ के लिए घर के ठीक सामने है तो कुछ के लिए दो कदम की दूरी पर, जैसे हमारे लिए। फ़व्वारा भी है। हरे-भरे पेड़ हैं। लेकिन सब या तो पचास-साठ मील दूर पहाड़ों में गए होंगे। या फिर नेटफ्लिक्स पर कुछ देख रहे होंगे। मम्मी और मैं भी लॉकडाऊन से पहले मंदिर ही जाते थे। यहाँ कभी-कभार शनिवार की दोपहर आ जाते थे। अब तो रोज़ आते हैं।
जो भी लोग मिलते हैं उनसे औपचारिक अभिवादन होता है। बाद में कहीं मिलें तो पता भी नहीं चले कि पहले कहीं देखा है। नाम पूछना-बताना तो बहुत दूर की बात है।
आज एक तीस-बत्तीस वर्ष का युवक एक कुर्सी पर बैठा लेपटॉप पर कुछ काम कर रहा था। उसने मेरी तरफ़ देखा तक नहीं। सो हैलो-हाय भी नहीं हुई।
दो-चार फेरों के बाद मैंने देखा कि कुर्सी ख़ाली है। पास से गुज़रा तो देखा उसका फ़ोन कुर्सी पर ही छूट गया था।
सोचा उसे जल्दी ही अहसास हो जाएगा और वो वापस आकर ले जाएगा। आजकल फ़ोन के बिना एक पल का जीना भी मुश्किल हो जाता है।
कई फेरे हो गए। कोई लेने नहीं आया। मम्मी को बहुत चिंता होने लगी। मैंने समझाया आप क्यों फ़िक्र कर रहीं हैं? उसका फ़ोन है। वो जाने और उसका काम। आप न परेशान हों।
मुझे लगा यदि उसे याद नहीं उसने फ़ोन कहाँ छोड़ा है तो वो किसी दूसरे के फ़ोन से इसे कॉल करेगा और मैं उसे उठा लूँगा और उससे बात करके उसे दे दूँगा। इस अपार्टमेंट काम्प्लेक्स के ज़्यादातर निवासी या तो शादीशुदा हैं या किसी रूममेट के साथ रहते हैं।
कोई घंटी नहीं बजी।
मम्मी ने कहाँ देख तो सही उस पर उसका नाम लिखा होगा। मैंने अपने फ़ोन पर लॉक स्क्रीन पर मेरा नाम, फ़ोटो और ऑफिस का नम्बर लगा रखा है ताकि जिस भले आदमी को मिले, कम से कम उसे लौटने में आसानी तो हो। ऑफिस के नम्बर पर कोई फ़ोन आता है तो वह लैपटॉप पर बज जाता है। न उठाओ तो मैसेज भी छोड़ा जा सकता है। सारी जानकारी ईमेल पर आ जाती है।
मैंने देखा। लॉकस्क्रीन पर एक तीन-चार माह के बच्चे की फ़ोटो थी। अनलॉक करने के लिए अंगूठे के निशान या पासकोड माँग रहा था। इमरजेंसी नम्बर भी सेटअप नहीं किया हुआ था जिसे फ़ोन किया जा सके।
ग़नीमत से न पढ़ें हुए टेक्स्ट मेसेज लॉकस्क्रीन पर पढ़ें जा सकते हैं। किसी का टेक्स्ट पढ़ना उचित नहीं है। लेकिन यहाँ कोई तो जानकारी हासिल करनी थी। सो मैंने देखा एक किसी मुग्धा का टेक्स्ट था। मुझे याद आया कि पास के ही किसी एक अपार्टमेंट के दरवाज़े पर दो नाम लिखे थे: कमल-मुग्धा।
आमतौर पर यहाँ अमेरिका में घर के बाहर नाम की तख्ती लगाने का प्रचलन नहीं है। सब गोपनीयता बरतना चाहते हैं। लेकिन क़िस्मत से इन्होंने तख्ती लगा रखी थी। आमतौर पर मैं पढ़ता नहीं। लेकिन मम्मी चूँकि वॉकर के साथ धीरे-धीरे चलतीं हैं सो मेरी नज़र पढ़ गई थी।
मैंने उनका दरवाज़ा खटखटाया। कमल ने खोला। उसकी गोद में तीन-चार माह का बच्चा था। मैंने कहा कि आप अपना फ़ोन भूल गए थे। उसने लिया, धन्यवाद बोला और दरवाज़ा बन्द कर दिया।
(कमल-मुग्धा असली नाम नहीं हैं। घटना सच्ची है।)
राहुल उपाध्याय । 26 जुलाई 2020 । सिएटल