Sunday, September 13, 2020

किसी के बाप का (की) हिंदुस्तान (मुम्बई) थोड़ी है

हो राहत या कंगना

सबका एक ही है कहना

आलोचना करना क्या जुर्म है

जो बात-बात पर कह देते हो

जाओ कहीं ओर 


यही राहत ने कहा

यही कंगना है कहती

यह जगह तुम्हारे बाप की थोड़ी है

किरायेदार हो, जाती मकान थोड़ी है


एक को धिक्कारना

एक को पुचकारना

ये दोगलापन क्यों?


अपनी पहचान मिटाने को कहा जाता है

बस्तियाँ छोड़ के जाने को कहा जाता है


पत्तियाँ रोज़ गिरा जातीं हैं ज़हरीली हवा

और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है


मैं नूर बनकर ज़माने में फैल जाऊँगा (जाऊँगी)

तुम आफ़ताब में कीड़े निकालते रहना

[आफ़ताब = सूरज]


साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तरह

मुझसे बुज़दिल की हिमायत नहीं होने वाली


अबके जो फ़ैसला होगा वो यहीं पर होगा

हमसे दूसरी हिजरत नहीं होने वाली

[हिजरत=वतन छोड़ना, विभाजन]


उठा शमशीर, दिखा अपना हुनर, क्या लेगा?

ये रही जान, ये गर्दन, ये सर, क्या लेगा?

[शमशीर=तलवार]


सिर्फ एक शेर (ट्वीट) उड़ा देगा परख्ते तेरे

तू समझता है कि शायर (लड़की) एक कर क्या लेगा (लेगी)?


अगर ख़िलाफ़ हैं, होने दो, जान थोड़ी है

ये सब धुँआ है, कोई आसमान थोड़ी है


लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में

यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है

[ज़द = निशाना]


हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है

हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

[सदाक़त = सच्चाई]


मैं जानता हूँ कि दुश्मन भी कम नहीं

लेकिन हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है


जो आज साहिब-ए-मसनद हैं कल नहीं होंगे

किराएदार हैं, जाती मकान थोड़ी है

[साहिब-ए-मसनद = गद्दी पर बैठे]


सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में

किसी के बाप का (की) हिंदुस्तान (मुम्बई) थोड़ी है


राहुल उपाध्याय । 13 सितम्बर 2020 । सिएटल 

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