Monday, September 28, 2020

वर्णमाला

कमसिन से

ख़ता 

ग़लती 

घड़ी-घड़ी हो जाती है 


चलते-चलते

छत पे

जब-तब

झेंप जाती है 


टूटेगा दिल जो

ठुकराएगी वो

डरती रहती है 

ढाई आखर के प्यार से वो


तन

थरथराए

दिल

धड़के

नस-नस तड़पे 


परिवार

फ़ैमिली 

बच्चे 

भी 

मन में हैं


यदा-कदा नहीं 

रात-दिन

लगातार

वहम

शक 

षड्यंत्र

सब 

हावी होते जाते हैं 


क्षण-क्षण

त्रिकोण के

ज्ञापन से सहम जाती है 


ऋचाएँ बनतीं-बिगड़तीं जातीं हैं


राहुल उपाध्याय । 28 सितम्बर 2020 । सिएटल 

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