कमसिन से
ख़ता
ग़लती
घड़ी-घड़ी हो जाती है
चलते-चलते
छत पे
जब-तब
झेंप जाती है
टूटेगा दिल जो
ठुकराएगी वो
डरती रहती है
ढाई आखर के प्यार से वो
तन
थरथराए
दिल
धड़के
नस-नस तड़पे
परिवार
फ़ैमिली
बच्चे
भी
मन में हैं
यदा-कदा नहीं
रात-दिन
लगातार
वहम
शक
षड्यंत्र
सब
हावी होते जाते हैं
क्षण-क्षण
त्रिकोण के
ज्ञापन से सहम जाती है
ऋचाएँ बनतीं-बिगड़तीं जातीं हैं
राहुल उपाध्याय । 28 सितम्बर 2020 । सिएटल
0 comments:
Post a Comment