Saturday, July 23, 2022

आदमी आलसी है

आदमी आलसी है, 

खाता है, पीता है, 

खाने-पीने-सोने में 

जीवन बीत जाता है 


झूठी ये दुनिया, झूठी ये माया

झूठी है पर सच दिखती है काया

जाती है जल तो दिल गाता है 


सबको पता है कोई न समझे

खाने-पीने में बस रोज़ उलझे

करना क्या है भूल जाता है 


अपना जहाँ ये अपना कहाँ है 

ये जग तेरा-मेरा कहाँ है 

ज्ञानी वही जो सब छोड़ पाता है 


दो दिन का रेला हर पल नहीं है 

जो इस पल वो उस पल नहीं है

आते-आते सब खो जाता है 


राहुल उपाध्याय । 23 जुलाई 2022 । होशियारपुर 

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4 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

रंजू भाटिया said...

सुंदर रचना

मन की वीणा said...

जिंदगी का सत्य बतलाती सुंदर रचना।

दीपक कुमार भानरे said...

जीवन तो यूं ही गुजर जाता है सोने , समझने और उलझने में। उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय ।