आदमी आलसी है,
खाता है, पीता है,
खाने-पीने-सोने में
जीवन बीत जाता है
झूठी ये दुनिया, झूठी ये माया
झूठी है पर सच दिखती है काया
जाती है जल तो दिल गाता है
सबको पता है कोई न समझे
खाने-पीने में बस रोज़ उलझे
करना क्या है भूल जाता है
अपना जहाँ ये अपना कहाँ है
ये जग तेरा-मेरा कहाँ है
ज्ञानी वही जो सब छोड़ पाता है
दो दिन का रेला हर पल नहीं है
जो इस पल वो उस पल नहीं है
आते-आते सब खो जाता है
राहुल उपाध्याय । 23 जुलाई 2022 । होशियारपुर
4 comments:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२५-०७ -२०२२ ) को 'झूठी है पर सच दिखती है काया'(चर्चा-अंक ४५०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुंदर रचना
जिंदगी का सत्य बतलाती सुंदर रचना।
जीवन तो यूं ही गुजर जाता है सोने , समझने और उलझने में। उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय ।
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