साँसें तो लेता हूँ
लेकिन
साँस में साँस तभी आती है
जब तुम्हारा फ़ोन आता है
जाता हूँ बाज़ार
देखता हूँ रंग बिखरे चारों ओर
लेकिन असली नज़ारा नज़र
वीडियो कॉल में
तुम्हारे मोती से दाँतों की
हसीं हँसी में आता है
होती है शाम, होती है सहर
रातें भी आतीं-जातीं ही होंगी
समय के सारे विभाजन
गड्डमड्ड हो गए हैं
सच कहूँ तो हमारी-तुम्हारी बातों में
बिचारा समय पीस ही जाता है
किस-किस का नाम गिनाऊँ?
किस-किस को धन्यवाद कहूँ?
आईफ़ोन को कि व्हाट्सेप को?
इंटरनेट को कि ग्राहम बेल को?
सोम को, मंगल को, कि सातों दिनों को?
कि उसे
जिसने ख़ुद से मुझे इतना दूर किया
कि तुम्हारे क़रीब आ गया?
राहुल उपाध्याय । 27 जनवरी 2021 । सिएटल
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वाह
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