Wednesday, January 27, 2021

मोती से दाँतों की हसीं हँसी

साँसें तो लेता हूँ 

लेकिन

साँस में साँस तभी आती है

जब तुम्हारा फ़ोन आता है


जाता हूँ बाज़ार 

देखता हूँ रंग बिखरे चारों ओर

लेकिन असली नज़ारा नज़र 

वीडियो कॉल में

तुम्हारे मोती से दाँतों की 

हसीं हँसी में आता है 


होती है शाम, होती है सहर

रातें भी आतीं-जातीं ही होंगी 

समय के सारे विभाजन 

गड्डमड्ड हो गए हैं

सच कहूँ तो हमारी-तुम्हारी बातों में 

बिचारा समय पीस ही जाता है 


किस-किस का नाम गिनाऊँ?

किस-किस को धन्यवाद कहूँ?

आईफ़ोन को कि व्हाट्सेप को?

इंटरनेट को कि ग्राहम बेल को?

सोम को, मंगल को, कि सातों दिनों को?

कि उसे

जिसने ख़ुद से मुझे इतना दूर किया

कि तुम्हारे क़रीब आ गया?


राहुल उपाध्याय । 27 जनवरी 2021 । सिएटल 






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