पहले भी बरसा था क़हर
अस्त-व्यस्त था सारा शहर
आज फ़िर बरसा है क़हर
अस्त-व्यस्त है सारा शहर
बदला किसी से लेने से
सज़ा किसी को देने से
मतलब नहीं निकलेगा
पत्थर नहीं पिघलेगा
जब तक है इधर और उधर
मेरा ज़हर तेरा ज़हर
बुरा है कौन, भला है कौन
सच की राह पर चला है कौन
मुकम्मल नहीं है कोई भी
महफ़ूज़ नहीं है कोई भी
चाहे लगा हो नगर नगर
पहरा कड़ा आठों पहर
न कोई समझा है न समझेगा
व्यर्थ तर्क वितर्क में उलझेगा
झगड़ा नहीं एक दल का है
मसला नहीं आजकल का है
सदियाँ गईं हैं गुज़र
हुई नहीं अभी तक सहर
नज़र जाती है जिधर
आँख जाती है सिहर
जो जितना ज्यादा शूर है
वो उतना ज्यादा क्रूर है
ताज हैं जिनके सर पर
ढाते हैं वो भी क़हर
आशा की किरण तब फूटेगी
सदियों की नींद तब टूटेगी
ताज़ा हवा फिर आएगी
दीवारें जब गिर जाएँगी
होगा घर जब एक घर
न तेरा घर, न मेरा घर
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राहुल उपाध्याय । 24 सितम्बर 2002 । सेन फ्रांसिस्को
1 comments:
#राजश्री_साहित्य_अकादमी_सत्_सत्_नमन
🙏#गुरु_चरणों_की_धूल🙏
#गज़ल
वसंत ऋतु में यूं पत्ते गिरते जा रहें हैं,
दफ़्तर-ए-गुल यूं झुलसे जा रहें हैं।१
हर दुःखी तिजारत जग को खा गई है,
नफरतें जग में फैलाते जा रहे हैं।२
मतलबी दुनिया में है यह कैसी खलबली,
रवादार साथ छोड़ते जा रहे हैं।३
साहिलों के पास आके नांव डूबतीं,
राई के शिखरों पे चढ़ते जा रहे हैं।४
रॅंगी हमराही ज्ञान गुण सागर,
कनक झनक स्वर्तानी गातें जा रहे हैं।।५
✍️ जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाॅंसी
बुन्देलखण्ड
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