तब ज़िन्दगी ऐसी नहीं थी
कि ए-सी होता
बिजली ही नहीं थी
कि ऐसी सम्भावनाएँ बीज लेतीं
न पंखे थे
न पंख
कि कल्पनाएँ उड़ान भरतीं
जो देखा-सुना बहुत सीमित था
औरतें तो नगण्य थी ही
पुरूष प्रधान समाज में भी
पुरूष के उत्थान का
स्थान नहीं था
दादा
पिता को डाँटें-पीटें
पिता
बेटे को
कोई कुछ करना भी चाहे
तो ताने सुनो
अपने आप को बहुत होशियार समझते हो?
बड़ों के सामने ज़बान चलाते हो?
भगवान का दिया क्या कुछ नहीं हमारे पास
इनसे तुम ख़ुश नहीं
तो सुखी कभी रह नहीं पाओगे
गाँव छूटे
साँचे टूटे
शहर आए
भँवर में आए
आटे-दाल के
भाव समझ में आए
धीरे-धीरे
होश में आए
कभी डूबे
कभी इतराए
हार-जीत के
सम्पर्क में आए
सिनेमा देखा
किताबें बांची
संगीत सुना
नाटक देखा
नृत्य समझा
यौवन देखा
हुस्न जाना
पर्वत घूमें
समन्दर नापा
रंग देखे
इश्तहार देखे
समझाने वाले
समझदार देखे
सूरज-चाँद नज़दीक आए
दूर थे जो पास में आए
किसी तरह का बन्धन नहीं था
रोकने-टोकने वाला कोई कहीं न था
उड़ती पतंग को सूत्रधार चाहिए
बुलंद इमारत को मज़बूत आधार चाहिए
उड़ना चाहे लाख पसन्द हो
ज़मीं पे न उतरे तो ख़ाक उड़े
इसी चढ़ाव-उतार का
नाम है जीवन
गाँव न होता तो
शहर की चाह न होती
दबाव न होता तो
उत्थान का प्रयास न होता
राहुल उपाध्याय । 22 जून 2021 । सिएटल
10 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-06-2021को चर्चा – 4,105 में दिया गया है।
आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
आपकी लिखी रचना आज ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बृहस्पतवार 24 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जीवन विचित्र विषमताओं का नाम है।
अच्छी रचना।
सादर।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर रचना।
बहुत सुंदर रचना।
अब तो सब अपने उत्थान के लिए दौड़े पड़े हैं ।
गहन अभिव्यक्ति ।
उड़ना चाहे लाख पसन्द हो
ज़मीं पे न उतरे तो ख़ाक उड़े
इसी चढ़ाव-उतार का
नाम है जीवन
सही कहा..बहुत सटीक एवं सार्थक सृजन।
यथार्थ लेखन, विसंगतियों के साथ जीना ही जीवन।
सुंदर।
उड़ती पतंग को सूत्रधार चाहिए
बुलंद इमारत को मज़बूत आधार चाहिए
उड़ना चाहे लाख पसन्द हो
ज़मीं पे न उतरे तो ख़ाक उड़े
इसी चढ़ाव-उतार का
नाम है जीवन
सुन्दर अभिव्यक्ति.. सच कहा आपने... इसी उतार चढ़ाव का नाम ही तो है जीवन....
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