ये छत न हो
शहर न हो
तो मुझे तेरी
ख़बर न हो
कि तुम जगी रात भर
कि दिन में हुई रात थी
कि तुम खेली आग से
कि तुम ही ख़ुद आग थी
कि पलके मूँदीं जान के
कि प्यार से निकली आह थी
कि गिरा-उठा प्रेम फीवर
कि धड़कनें हुईं फ़ास्ट थीं
कि ज़ुल्फ़ गिरी शाख़ से
कि शाख़ ही बदहवास थी
वो कौन था, वो ख़ुशनसीब
जिसके तुम साथ थी
ये छत न हो
शहर न हो
तो मुझे तेरी
ख़बर न हो
जीने को
जी रहे
जीने की
वजह न हो
राहुल उपाध्याय । 24 जून 2021 । सिएटल
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