इस श्वेत-श्याम चित्र में रंग हमने भरे हैं
क़ुदरत तो सोती रही, 5 बजे के अलार्म हमने भरे हैं
सोओ तो सपने
जागो तो सपने
सपनों के पीछे हम कबसे लगे हैं
दिन भर खटो तो कहलाओ कोल्हू के बैल
घर पर पड़े रहो तो कहे अजगर हैं आप
कुछ बनने की प्रक्रिया में हम क्या-क्या बने हैं
सर से पाँव तक हम तानों से सने हैं
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छूट जाते हैं हाथ से
कभी फोन
तो कभी किताब
लोग कोशिश करते हैं
सोने की
और मैं जगे रहने की
उठ जाता हूँ अलसुबह
जुड़ जाता हूँ क़तारों में
घुस जाता हूँ गलियारों में
रात जब लौटता हूँ
तो कुछ सुन-सुनाके, पका-खाके
हो जाता हूँ ढेर
मैं बह रहा हूँ
किसी पत्ते की तरह
समय की नदी में
और कहनेवाले
कहते हैं कि
जागो
जीवन को साधो
मैं
एक मासूम बच्चे की तरह
सोचता ही रहता हूँ कि
जागा तो मैं अलसुबह से हूँ
क्या जब नींद आए तब सो भी नहीं सकता?
और अब कितने नियम बनाऊँ?
कितना अनुशासित करूँ ख़ुद को?
छूट जाते हैं हाथ से
कभी फोन
तो कभी किताब
लोग कोशिश करते हैं
सोने की
और मैं जगे रहने की
कहीं बज उठता है गीत:
कहाँ जा रहा है तू ऐ जानेवाले
अँधेरा है मन का, दीया तो जला ले
और वो भी जगाने की बजाए
लोरी का काम कर जाता है
छूट जाते हैं हाथ से
कभी फोन
तो कभी किताब
19 दिसम्बर 2016
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