महीन से महीन
महीना भी एक भार है
यह साल उठेगा नहीं
लगता इस बार है
तिल-तिल कर
गुज़रता वक़्त है
कहने को
जीने के दिन चार हैं
क्या सोम, क्या मंगल
क्या शनि, क्या रवि
हर दिन
होता एक वार है
मूर्ति तो नहीं
पर मूर्ति सा ही
गर्भगृह में बंद
मेरा कारोबार है
ज्ञान और विवेक की
बारह बज गई है
न जाता है राहुल कहीं
न आता घर अख़बार है
राहुल उपाध्याय । 18 अगस्त 2020 । सिएटल
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