शब्दों के अर्थ जानने से रचना को समझने में आसानी तो होती है, लेकिन सिर्फ उस रचना को। कुछ दिनों बाद अर्थ खो जाते हैं। किसी दूसरी रचना को पढ़ते वक़्त याद नहीं आते।
उन्हें आत्मसात करने के लिए उन्हें उपयोग में लाना आवश्यक है। मैं उन्हें किसी नयी रचना में शामिल कर लेता हूँ। ज़्यादातर वह नया शब्द ही रचना का बीज होता है।
कभी-कभी नज़्म में एक शब्द है: मुहीब। उस शब्द को लेकर बनी यह रचना:
मोहब्बत मुहीब भी, सलीब भी
पानेवाला खुशनसीब भी
ज़माना हुआ ब्रेकअप हुए
दूर होकर के हैं क़रीब भी
न नज़रें मिलाए, न कहें कुछ
कहने को हैं मेरे हबीब भी
क़ाफ़िया ही कुछ ऐसा है
कि आ गया यहाँ रक़ीब भी
आकर अमेरिका, की शायरी
हुए अमीर, हुए ग़रीब भी
राहुल उपाध्याय । 25 अगस्त 2020 । सिएटल
अब अर्थ सहित:
मोहब्बत मुहीब (डरावनी) भी, सलीब (सूली) भी
पानेवाला खुशनसीब भी
ज़माना हुआ ब्रेकअप हुए
दूर होकर के हैं क़रीब भी
न नज़रें मिलाए, न कहें कुछ
कहने को हैं मेरे हबीब (दोस्त) भी
क़ाफ़िया (तुकांत शब्द) ही कुछ ऐसा है
आ गया यहाँ रक़ीब (प्रेम प्रतिद्वंद्वी) भी
आकर अमेरिका, की शायरी
हुए अमीर, हुए ग़रीब भी
1 comments:
वाह
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