एक पहेली मैं खुद बन गया
मैं बन जाऊँ तो जश्न मन गया
दु:ख मुझे भाए
मुझे दुख न सताए
ख़ुशी के मौक़े पे
सब कत्ल पे उतर आए
सुन्दर से मुखड़े पे चाक़ू चल गया
गाने भी वो गाए
बन-ठन के वो आए
आग भी लगाए
क्यूँ समझ न आए
बूझते-बूझते ही मैं कट गया
सिवाय बँटने के
मेरा कोई काम नहीं
मेरा कोई वजूद नहीं
मेरा कोई नाम नहीं
अपने ही चेहरे पे कई नाम लिख गया
आप समझ गए हो
तो मुझे न बताए
डायबीटीज़ हो तो
बिलकुल भी न खाए
फिर न कहना मेरा शुगर बढ़ गया
राहुल उपाध्याय । 6 अगस्त 2020 । सिएटल
4 comments:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (०८-०८-२०२०) को 'मन का मोल'(चर्चा अंक-३७८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
बहुत सुंदर कविता।
मेरे ब्लॉग पर भी आईए।
iwillrocknow.com
बहुत खूब,बेहतरीन अभिव्यक्ति,सादर नमन
बहुत सुंदर रचना
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