कैसे कहें हम रोग ने हमको
क्या-क्या खेल दिखाएँ
यूँ शरमाई किस्मत हमसे
खुद से हम शरमाए
बागों को तो पतझड़ लूटे
लूटा हमें बहार ने
मृतक मरे रोग से लेकिन
मारा हमें अलगाव ने
अपना वो हाल हैं बीच सफ़र में
जैसे कोई भाग जाए
तुम तो जानो क्या चाहा था
क्या खोकर बैठे हम
रिश्ते-नाते, बंधु-बांधव
सब सपने, सब दमख़म
इतना सब है खोया हमने
कहे तो कहा ना जाए
ऐसे लगी बंदिशें हम पे
कहीं भी जा ना सके हम
अपनों से हम मिल ना पाए
रोए तो रो ना सके हम
कब होगा ये रोग अलविदा
हमें कुछ समझ न आए
(नीरज से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 16 दिसम्बर 2020 । सिएटल
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