मैं अभी भी एक खुली किताब हूँ
बस भाषा बदल गई है
कुछ पन्ने फट गए हैं
कुछ आगे-पीछे हो गए हैं
कुछ की स्याही उड़ गई है
कुछ अभी कोरे हैं
कभी-कभी कोई आती है
कुछ लिख जाती है
मुझे कुछ समझ नहीं आता
लगता है क्रोशे से कुछ लिखा है
जैसे कोई महीन आर्ट-वर्क हो
सुन्दर
अति सुन्दर
मैं मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ
फिर वही
उनके मायने
उलटें-सीधें बताकर
काट-पीटकर
चली जाती है
पन्ने कुछ अभी भी कोरे हैं
मैं चाहता हूँ कि कोई आए
कुछ लिखे
जबकि होना फिर वही है जो पहले हुआ है
लिखने को मैं भी लिख सकता हूँ
लेकिन उसमें वो रोमांच कहाँ?
राहुल उपाध्याय । 22 फ़रवरी 2022 । सिएटल
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